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श्रमण महावीर
- 'हम साधु हैं।'
'इस पात्र में क्या है ?' 'भोजन।'
'भोजन का संग्रह करते हो, फिर साधु कैसे ? साधु को जो मिले वह वहीं खा लेना चाहिए । वह पान भर क्यों ले जाए ?'
'हम संग्रह नहीं करते, किन्तु यह भोजन बीमार साधु के लिए ले जा रहे हैं।'
'दूसरों के लिए ले जा रहे हो, तब तुम निश्चित ही साधु नहीं हो । यह गृहस्थोचित कार्य है, साधु-जनोचित कार्य नहीं है । यह मोह है।'
'यह मोह नहीं है, यह सेवा है। भगवान महावीर ने इसका समर्थन किया है। एक साधक दूसरे साधक की सेवा करे, इसमें अनुचित क्या है ? इसे गृहस्थकर्म क्यों माना जाए ?' |
संघवद्व रहना और परस्पर सहयोग करना, उस समय पूर्णतः विवाद-रहित नहीं था। फिर भी भगवान् महावीर ने संघबद्ध साधना का मूल्य कम नहीं किया। साथ-साथ संघमुक्त साधना को भी पदच्युत नहीं किया। दोनों विधाओं के लिए भगवान् का दृष्टिकोण स्पष्ट था। उन्होंने कहा
१. जिस साधक को सहयोग की अपेक्षा हो, वह संघ में रहकर साधना करे। २. जिसमें अकेला रहने की क्षमता हो, वह एकाकी साधना करे। ३. संघ में निपुण सहायक-उत्कृष्ट या समान चरित्र वाले साधक के साथ
रहे । हीन चरित्र वाले साधक के साथ न रहे । निपुण सहायक के अभाव में अकेला रहकर साधना करे।'
१. उत्तरायणाणि, ३२।५ ।