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श्रमण महावीर
सक्षम । कुछ साधक स्वस्थ थे और कुछ रुग्ण । कुछ साधक युवा थे और कुछ वृद्ध । दुर्बल, रुग्ण और वृद्ध साधक जीवन-यापन की कठिनाई का अनुभव करते थे। वे या तो जीवन चला नहीं पाते या जीवन चलाने के लिए गृहस्थों का सहारा लेते थे। भगवान् पार्श्व ने सोचा कि यदि दूसरे का सहारा ही लेना है तो फिर एक साधक दूसरे साधक का सहारा क्यों न ले ? गृहस्थ के अपने उत्तरदायित्व हैं। उसे उन्हें निभाना होता है। साधकों पर कोई पारिवारिक उत्तरदायित्व नहीं होता । अक्षम साधक की परिचर्या का उत्तरदायित्व समर्थ साधक के कंधों पर क्यों नहीं आना चाहिए?
यह चितन संघीय साधना का पहला उच्छ्वास बना । उन्मुक्त साधना की कोई पद्धति नहीं होती। संघीय साधना पद्धतिबद्ध होती है। साधना को संघीय बनाने के लिए उसकी पद्धति का निर्धारण किया गया। पद्धतिहीन साधना का एकरूप होना जरूरी नहीं है, किन्तु पद्धतिवद्ध साधना का एकरूप होना अत्यन्त जरूरी है । इस एकरूपता के लिए साधना के संविधान की रचना हुई। उससे मुनि-संघ अनुशासित हो गया । संगठन की दृष्टि से उसका बहुत महत्त्व नहीं है। अनुशासन और साधना की प्रकृति भिन्न है। साधक भी भिन्न-भिन्न प्रकृति के होते हैं । कुछ अनुशासन के साथ साधना को पसन्द करते हैं और कुछ मुक्त साधना को । मुक्त साधना करने वाले अपना पथ स्वयं चुन लेते हैं। कुछ साधक संघ में दीक्षित होकर बाद में मुक्त साधना करना चाहते हैं। भगवान् महावीर ने इन सवको मान्यता दी । भगवान् ने साधकों को तीन श्रेणियों में विभक्त कर दिया
१. प्रत्येक वुद्ध-प्रारम्भ से ही संघ-मुक्त साधना करने वाले। २. स्थविरकल्पी-संघवद्ध साधना करने वाले। ३. जिनकल्पी-संघ से मुक्त होकर साधना करने वाले।
यह श्रेणी-विभाग भगवान् पाव के समय में भी उपलब्ध होता है। संघ साधना का स्थायी केन्द्र था। अकेले रहकर साधना करने वाले साधकों को उस (साधना) की अनुमति मिल जाती। वे साधना पूर्ण कर फिर संघ में आना चाहते तो आ सकते थे । भगवान् महावीर की दृष्टि संघ से बंधी हुई नहीं थी। उसका अनुबंध साधना के साथ था। साधक का लक्ष्य साधना को विकसित करना है, फिर वह संघ में रहकर करे या अकेले में । साधना-शून्य होकर अकेले में रहना भी अच्छा नहीं है और संघ में रहना भी अच्छा नहीं है। संघ को प्रधान मानने वाले व्यक्ति अपने हार को खुला नहीं रख सकते । जो अपने संघ के भीतर आ गया, उनके लिए बाहर जाने का द्वार बन्द रहता है और जो बाहर चला गया, उसके लिए भीतर आने का हार बन्द रहता है। भगवान महावीर ने आने और जाने के बोनों हार गुले रग्वे । साधना के लिए कोई भीतर आए तो थाने का द्वार खुला है और माधना के लिए कोई बाहर जाए तो जाने का हार बुला है।