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________________ Lord Mahāvīra. By L. A. PHALTANE, ESQR. B A., LL, B., PLEADER, ISLAMPOR ( SATARA). [प्रस्तुत लेखमें श्री फलटणेजीने भ० महावीरके जीवनको विवेचना अपने दृष्टिकोणसे की है। महापुरुषकी सार्थकता लोकपर उसके प्रभावसेही आकी जाती है । जगतीमें हिंसा और अहिंसाका संघर्ष बराबर चलता रहता है । जव हिंसाके राज्यमें दुखशोक वड जाते हैं, तव महापुरुष लोकमें बसकते हैं। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवने पहले पहले अयोध्या में अहिंसा धर्मका प्रचार किया था। उपरान्त मन्य तीर्थकरानेभी उसका प्रचार किया और वह दूर देशोंमें फैला । क्रमशः जैन धर्मका केन्द्र पूर्वभारत - विहार और बंगाल हुआ । तीर्थंकर पार्श्वके पहलेसे वह इस प्रदेशमभी हतप्रम हुआ । हिंसाकी मान्यता लोगोंमें वढी । बनारसमेंमी हिसामत फैला पार्थको नगर बाहर कमठ हिंसक नागयज्ञ करता हुआ मिला--- पाने उन दोनो नागोंको बचा दिया था । साधारणतः वे नाग पशु पर्यायके सर्प माने जाते हैं । हमारे विचारसे वे नागलोकके मानव थे-तभी तो वे पार्थ उपसर्गको मेंटनेके लिये आये थे। यह हिंसामत बौद्ध और जैन शास्त्रोंमें "मार " नामसे अभिहित हुआ है । म. पार्श्वने इस हिंसाके मतपर विजय पाई थी, इसलिये ही वह "मारजित " कहलाये थे। पार्वतीर्थकरके पश्चात् कुछ काल बीतनेपर यह हिंसामत फिर जोर पकड गया। बुद्ध एवं मन्य मत प्रवर्तक उससे मोर्चा लेनेको आगे आये-किन्तु वे आपसमेही तर्क-वितर्क करनेमें जुटे रहे 1 लोकमें अज्ञान और असतोष बढ़ता रहा । इस दयनीय लोकस्थितिमें म. महावीरका जन्म हुमा । मानवसमाजका मामूलचूल सुधार करनेके लिये वह मुनि हुये और बारह वर्षोंकी साधनामें उन्होंने घोर तपस्या की । वह सर्वज्ञ हुये । कैसी थी वह तपस्या कुछ ज्ञात नही! म. महावीरको उनके निकटतम शिष्य गणघाभी पूरी तरह समझ नहीं पाये थे। अतः बाह्य वातावरणसे इस प्रश्नका उत्तर पानेका प्रयास उपेक्षणीय नहीं ! क्या महावीरका सदेश आत्मस्वातश्य पा माघ्यात्मिक मुक्ति तक सीमित था अथवा जावनकी अन्य अपेक्षाओं के लियेभी वह उपयोगी था? क्या महावीरने तत्कालीन समाजका लौकिक और पारिलौकिक समन्वय किया था? यदि पिया था तो फिस रूपमें | इन प्रश्नोंका उत्तर अभी तक कहाँसे नहीं मिला है। महापुरुषोंको समझना सुगम नहीं । उनके एक गुणपर मोहित होकर मानव मन्य गुणोंको नहीं देखता। अतः उनका सूक्ष्म अध्ययन अपेक्षित है। महावारके उपरान्तकालमें अनेक मंदिर, विहार, स्तूप, मूर्तिया अद्भुत कलाके बने जिनको देखतेही धनता है । और विविध विषयोंपर उच्चकोटिका साहित्यमी रबागया । देशमें बढे २ राजा महाराजा और सेठसाहूकार हुये जिन्होंने भारतका नाम विदेशोंमें चमकाया। लोक भारतवर्षको आदर्श देश मानकर यहाँको यात्रा करनेको लालाचित हुये। देश खूब समृद्धिशाली हुमा! पूर्व-महावीरका भारत ऐसा नहीं था। पहलेकी कोई मार्मिक साहित्यरचना और मोहन क्ला नहीं दिसती । यह सब महावीरके सदेशकी विशालता और उपयोगिताको सिद्ध करती है। जो मत तब चले उनमें जैन और चौसही शेष है । दोनोम साम्यमी है । सातवी शतीसे इनमेभी सघर्ष चला था । अतः महावीरले जीवनके किसी पहलूको अङ्ता नहीं छोड़ा था - वह मानवसमाजका सर्वतोभद्र हित साधने के लिये अवतरे थे । रोद है कि उनके ऋषिशिष्याने आध्यात्मिक शिक्षा के अतिरिक्त उनकी अन्य शिक्षाओंफो सुरक्षित नहीं रक्खा-अन्य शिक्षायें हार हो गई । इलोरा मादिस्थानों में गुफाओंकी दीवारोंपर मानव जीवनकी जो लीलायें उत्कीर्ण की हुई मिलती हैं उनसे स्पष्ट है कि मानवकी ७२
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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