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________________ प्रो. परशुराम कृष्ण गोड़ें। इस प्रकार जैन दिवालीका उद्गम म० महावीरके निर्वाणोत्सवसे प्रगट होता है और उनका निर्वाणकाल ई० पूर्व ५२८-५२७ माना जाता है। अतएव जैन दिवाली २४०० वर्षों इतनी प्राचीन ठहरती है। अब प्रश्न यह है कि क्या हिन्दू दिवालीभी इतनी प्राचीन है ? क्या उसके उद्गम का आदिस्रोत इतिहासमें प्रमाणित किया जा सकता है ? इन प्रश्नों का उत्तर शास्त्रीय उल्लेखोके आधारसे देनेके लियेही हमें प्रस्तुत लेख लिखना अभीष्ट है। अतएव शास्त्रीय साक्षीके आधारसे जिवनी प्राचीनता इम खोज सके हैं, यहा उपस्थित करते हैं। शेष कार्य अन्य शोधकों पर हम छोडते हैं। वे आगे खोन करें और ठीक निर्णय दें, यह वाछनीय है। हिन्दू दिवाली के विषयमें श्री० मार्गरेट स्टीवेन्सनने जो कुछ लिखा है, उससे स्पष्ट है कि हिन्दुभी दिवालीका त्यौहार चार दिनोंतक मनाते हैं । पहला दिन धनतेरसका बहुतही पवित्र माना जाता है। इस दिन सभी शुभकार्य किये जाते हैं। देना-लेना चुकता कर दिया जाता है। घरोंकी लिपाई पुताई हो जाती है। पुराने बरतन बदल कर नये कर लिये जाते हैं। लडके गोधूलिवेला पर गउओंके मध्य जा कर लकडीमें बधी सफेद धज्जियाँको जिन्हें 'भबुडा' कहते हैं, घुमाते हैं। गायें चौंक कर धूल उडाती हैं। यह धूल बालकोंके शरीर पर पड़ती है तो बहुत शुभ माना जाता है। इस दिनमी घरोमें रोशनी की जाती है। दूसरा दिन 'रूप चर्तदशी' कहलाता है। इस दिन सब लोग लडके उठ कर खूब नहाते-घोते और अच्छे कपडे पहनते हैं। फिर वे मित्रों के यहा जा कर जलपान करते और खुशिया मनाते हैं । किन्तु चौदसकी रात्रिको वह 'काल रात्रि' कहते हैं। छोगोंकी धारणा है कि इस दिन दुष्ट प्रेतात्मायें लोगोंको सताती हैं। वे टोटके करके चौराहे पर रखते हैं, हनुमानजीपर तेल व सिंदूर चढाते हैं । चढे हुये तेलका कानल पारकर आखोंमें डालते हैं और तब अपनेको प्रेतात्माओंसे सुरक्षित समझते हैं। कोई २ मत्र सापनामी करते हैं। कोलीभील आदि लोग महाकाली-भैरवी आदि देवीको बलि चढाते हैं। किन्तु तीसरा दिन विशेष 'महत्वका समझा जाता है। इस दिन लडके लडकिया बहुत तडके उठकर अच्छे कपडे पहनते और पटाखे छुडानेमें मम हो जाते हैं । इस दिन गीले कडेमें गन्नेको पोई धुरस कर वे दीवट बनाते हैं और उसपर जलता हुआ दीया रखकर वे घर-घर तेल भागते जाते हैं। इस दीपकके प्रकाशसे वे अपने मृत पूर्वजोंको प्रकाश पहुचता समझते है । इसी दिन शामको वही-पूजन किया जाता है और बडे २ दीपक जलाकर रोशनी की जाती है । पुरोहित आकर यह पूजन करता है और अन्तमें मिष्टान खाया जाता है और मित्रोंको भेजा जाता है। इस समय पटाखे छोडे जाते हैं। दहियें राव (पीछे पृथ्से चाल) चढानेकी प्रथामी कुछ समयसै चल पड़ी है। सार्यकालको मंदिर और घरोंमें दीपक जलाये जाते हैं तथा बहीपूजन किया जाता है। इधर कोई पुरोहित नहीं बुलाते-सब लोग स्वयं पूजा करते है। उपासन पर जैनशास्त्र विराजमान करते हैं, जो ज्ञानलक्ष्मी माने जाते हैं। उसके नीचे वही भौर सिके रख कर पूजा करते हैं। पश्चात् भारती करके पहियोंमें श्री महावीराय नम ' और 'श्री केवलज्ञानलक्ष्मी नमः "लिस कर पूजन करनेका उल्लेख तिथिवार सहित करते हैं। मिष्टानमी बांटते हैं। -का०प्र० २. उत्तर भारतमें यह क्रिया नहीं की जाती है। -का०प्र०
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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