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________________ ३०६ म. महावीर स्मृति-पंथ । प्रेम करना है । इन उल्लेखोंसे जेनका अर्थ विश्व प्रेम स्पष्ट होता है। चीनमें इसका पहले उपदेश आजसे २५०० वर्ष पहले महात्मा कन्फ्यूशख्ने किया था। उनके पश्चात ईसवी सन् ३८१ से पहले महात्मा मशियशने इसकी विशद विवेचना की थी। इनके पश्चात् प्राय: समी चीनी विद्वानाने इसका वर्णन किया है। वर्तमानमें चीनप्रजातंत्र के पिता डा. सूनयेतसेनने जेनका वैज्ञानिक विवेचन अपने त्रिसूत्री मानवी सिद्धान्तमें किया था, जिससे चीनको राजनैतिक मुक्ति मिली और चीनी संस्कृति की जाति हुई। महात्मा मैत्रियशने पहले २ जेनका प्रयोग व्यवहारिक राजनीतिमें किया था। उन्होंने योगके राजा हुई को यह उपदेश दिया था कि वह किसीको लाभ पहुंचाने की चिन्ता न करे । बल्कि जेन अर्थात मैत्री और ई अर्थात सस्य धर्म फैलानेका प्रयत्ल करे। उन्होंने चीनके प्रत्येक राज्यमें जाकर अपना यह सन्देशा फैलाया था। उनका कहना था कि मैत्रीपूर्ण मानवका कोई शत्रू नहीं होता। चीनके एक दूसरे बड़े महात्मा लाउ-सु नामक थे। उन्होंने नकारात्मक रूपमें इस सिद्धान्तका प्रयोग किया था। उन्होंने पशुवल, शस्त्रास्त्र और युद्धको बुरा बतलाया था। उनका कहना था कि को मानव धर्मपूर्वक किसी शासनको सेवा करते हैं वे शस्त्रास्त्र केवलसे किसी राजको नहीं जीतते । इससे उन्हें पुन्यलाभ होता है। जहां सेनायें छावनी डालती हैं वहां पवूल और काटे होते हैं । मले आदमी विजय पाकर रुक जाते हैं। वे पशुताके कार्य नहीं करते और न धमहमें फूलते हैं । शलान तो अमागलिक है । सब जीव उनसे घृणा करते हैं। अतः जिनको धर्मपर विश्वास है वे उनसे दूर रहते है । श्रेष्ठ सैनिक लढाऊ नहीं होते और श्रेष्ठ योद्धा क्रोध नहीं करते ! महान विजेता घे हैं, जो विना लडे हो अपने शत्रुभाको जीत लेते हैं। ईसवी सनसे ५०० वर्ष पहले मो-सु नामक महात्मा हुए थे। उन्होंने भी अहिंसाका उपदेश दिया था और युद्धको बुरा बतलाया था। एक बार उन्होंने सुना कि चीन राज्यका राजा सुंग राज्यपर धावा बोलने घाला है तो वह अपने स्थानसे बराबर २० दिन रात चलकर चीनके राजाके पास पहुंचे और उन्हें बाक्रमण करनेसे रोका। उनका मत था कि मत्येक प्राणी प्रेमसे रहे। कोई किसीसे लडे नहीं और न कष्ट पहुँचाए । प्रेम न करनेसे ही सारी आपत्तियां आती है। ससारमें सबसे बड़ा पाप धे बलवान राज्यों का निर्मल राज्योंपर आक्रमण करना, बडे कुलोका छोटे कुलौंपर अपटना और बल. धानोंका कमजोरोको दबोचना मानते थे । इस प्रकार बीनी महात्माभोंके उद्गारास महिंसाका महाय स्पष्ट है । मारतमें तीर्थंकर महावीर और शाक्यमुनि बुद्धने अहिंसा सिद्धान्तके अनुसारही अपने धर्मोका प्रचार किया था। जैनधर्म और बौद्ध धर्ममें इतना साम्य है कि कतिपय पाश्चात्य विद्वानोंने दोनोंको एक माननेकी गलती की थी। अलबत्ता दोनोंही धर्म अहिंसाको प्रधान मानते है। अहिंशाके साथ सत्य जुड़ा हुआ है। महात्मा गाधी कहते थे कि सत्य और अहिंसा ऐसे हिलीमले हैं कि उन्हें प्रथक करना असम्भव है । वे ऐसे है जैसे एक सिकेके दो पहलू । सच पूछा जाये तो अहिंसा सत्य और प्रेम ईश्वरके ही तीन रूप हैं। इनके साथही त्याग, क्षमा, निर्भयता, निस्वार्थभाव मादि गुण लगे हुए हैं । गाधीजी तो अपने शनसे भी प्रेमका व्यवहार करने की बात कहते थे क्योंकि अहिंसाको चरमसीमा क्षमा है, और वह एक चीरका लक्षण है। अहिंसा निर्मयताके चिना असमयही है । अहिंसा की माधारशिला निस्वार्थभाव है । लोकके सभी प्राणिोंमें एकसा जीवन और मात्मा है । उनके जन्ममरण एकही स्थानसे है । जैसे एक पेड़ की जडसे उसके पत्ते शाखा फूल फल सम्बंधित है, वैसेही लोकके प्राणी हैं । अतएव हम सबके हैं, सब हमारे हैं। चीनके महात्माओंका भी यही मत है । वह कहते हैं कि स्वर्ग, पृथ्वी और मेरा जन्म एक साथ हुमा सब माणि एक है और मेरे जैसे हैं। सब प्राणियोंसे प्रेम करो । सब लोग मेरे भाई हैं और इवर
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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