________________
भगवानके अहिंसा धर्ममें अशान्ति मेंटनेकी शक्ति।'
(ले० श्रीमान् रव० चम्पतरायजी जैन, विद्यावारिधि, वैरिस्टर एट-लो) गठ महासमरके समय दुनिया महासकट में थी, यह हम लोग भूल नहीं सकते । कहते थे कि वह समर शान्तिको स्थापना के लिये लड़ा गया है। किन्तु उस भयानक युद्धको समाप्त हुये इतना उमय हो गया, पर शान्ति कहीं भी नहीं दिखती ! प्रत्युत आनका वातावरणमी शान्तिके उतनाही विरुद्ध है जितनाति महासमरके समयमें था । विश्व पुराने मन्तव्यों पर तय हुआ है-बही पशुदउकी वृद्धि करने और सबकुछ खुद हडप आनेकी धुन सवार है। वही राष्ट्रीय प्रतियोगिताका संघर्ष पर चल रहा है, जिसके कारण दुनिया छोटे छोटे समर शिविरोंमें पलट गई है। इससे मौका जात ही सारे संसारमें आम लला सस्ती है। अब भी बलवान राष्ट्र कमजोर राष्ट्रोंके साथ पहलेही असा बर्ताव करते हैं । यढे २ राष्ट्रों के नेताओं के दृष्टिकोणमें कोई परिवर्तन नहीं हुवा है-सैनिक शाको बढाने और जनसहारक शस्त्रास्त्रों को समाह करनेमें कोई कमी नहीं हुई है । साराशतः यदि १६ मानामी नावे कि गतयुद्ध शान्तिस्थापनाके लिए लडे गये थे तो कहना होगा कि वे मसाल रहे ! आज हमारे राजनैतिक जीवनमें अविश्वास मुख्य स्थान लिये हुवे है, जिसका बुरा पारगाम युद्ध हो सकता है ! राजनैतिक वायदे पश्चिमके राष्ट्रोमैं सचाई और ईमानदारीसे नहीं किये माल, बल्कि राष्ट्रों के निजी सुमीते और लाम ही उनमें मुख्य कारण होते हैं। सचमुच ये राजनैतिक नवा इन चालबाजियोंसे सदा विज्ञ रहते है और जानते है कि जिन सन्धियोंको वे अपने हस्ताक्षरोंसे अन्यामत करते हैं वह केवल रहीके ट्रफडोंसे बढकर कुछ नहीं हैं। इस दशामें क्या यह सभव है कि
१ शान्तिका साम्राज्य 'लीग ऑब नेशन्स" (अब यू. एन. ओ०) अथवा 'फेलोशिप भाइ रिकन्सोलेशन' नामक समाओद्वारा स्थापित किया जा सकेगा ? मैं कहूगा, कदापि नहीं ।
में परिणामबादी ( Pessimist) किसी हालउमें नहीं बनना चाहता; किन्तु इस बात की पास आखें मोचेमी कोई नहीं रह सकता कि हमारे राजनैतिक उद्देश्य व सिद्धान्त शान्तिविज्ञान के पया विरुद्ध हैं। अत: उनसे कांटोंके बिछौने और भातुओंकी नदिया हमेशा बहेगी। पहले पाक हृदयोंको बदलना जरूरी है। यह उदय परिवर्तन सामूहिक रूपमें होना चाहिये । कुछ न मले आदमी अशान्ति फैलानेवाले दम्मी पुरुषोंसे भरी दुनिया कुछ नहीं कर सकते । शान्ति
मानद इस जीवनको आजकलके मानवासे नितान्त भिन्नरूपमें देखता है | आज तो प्रायः सबका १६ उहश है कि धन कमायो और मौज उडाओ (Acquestion and fashron ) यही प्रत्येक
* परिस्टर सा ने इस विषयका एक भाषण फ्रांस के नीष नामक नगरमें सन १९२६ में दिया पाकिन्तु बह आबभी इतनाही उपयोगी है । अतः उसका हिन्दी भावानुवाद यहा दे रहे है। का.म.
२८३