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भ० महावीर-स्मृति-ग्रंथ।
अतः ऋषभदेवने उदाहरण वनकर मानवको बता दिया कि "सावधान ! ऐहिक सम्पतिके मोहमें फसकर अपनी आत्माको मत भूलना, वरन् मानवका पतन अवश्यम्भावी हैं। इसलियेही अयोध्याके इस्वाकु राजसिंहासनपर अपने पुत्र भरतको स्थापित करके वह वनवासी हो गये। उनपर उन्होंने एक धागामी न रक्खा । परिग्रहसे संघर्ष उत्पन्न होता है । अतः निप्परिग्रही होकर जीवित रहने में मानवका अपना
और सारे लोकका भला है। यह सत्य ऋषभदेवने अपने आदर्शसे मूर्तमान बना दिया । वह अकेले, निरारंभी और निष्परिग्रही होकर गिरि-कन्दराओंमें मौन धारण किये विचरते रहे । नियोगकी साधनामें वह ऐसे लीन हुये कि छै महीने बाद उन्हें शरीरपोषणका ध्यान आया । वह भिक्षाके लिये आये जनताके मध्य; किन्तु तवतक जनताका अजान दूर नहीं हुआ था । वह अपमदेवको अपना उपकारी मानती यी-उनके विछोहमें विव्हल हो रही थी । उनको आग सुनकर वह स्वागत करनेके लिये दौड पड़ी । ऋषभदेवकी साधनामें वह विघ्न-रूप हुई। अपभदेव आहार लिये विनाही वनको चले गये और ध्यान-योगमें लीन हो गये । छै महीनेतक तप-तपाकर आत्मशोधन किया उन्होंने । तब फिर वह जनताके मध्य आये । इस बार हस्तिनागपुरके शासक-द्वय श्रेयास और उनके माईने विधिवत् बडी शान्तिसे उनका स्वागत किया-कोई कोलाहल नहीं हुमा । ताजा इक्षुरसका आहार श्रेयासने ऋषभदेवको दिया और अतिथि सत्कारके महती पुण्य विधानको सिरज दिया। अपम सर्वज्ञ परमात्मा हुये और उन्होंने लोकके लिये आत्मधर्मका निरूपण किया। चंकि उनके समयके लोग भोले थे, इसलिये उन्होंने इरएक बात अलग अलग समझाई और पाच ,पापोंसे मुक्त होने के लिये अलग अलग प्रायश्चित्त और चारित्रपालनका विधान किया ! इसलिये वह आदिब्रह्मा और आदि तीर्यङ्कर कहलाये । इस कालमें जैनधर्मके संस्थापक ऋषभदेव हुये! __ऋषमदेवके पश्चात् वाईस तीर्थंकर और हुये, जिन्होंने अपने २ समयके मानोंको भ्रमण धर्म और अहिंसा-संस्कृतिमें आगे बढाया। सर्व-अतिम तीर्थंकर महावीर थे। उनके समयमें मानव मायावी, वासनासक और वक्र हो गया था। हिंसा और वासनामें मानव अधा बना हुआ था। वानप्रस्थी और भिक्षु होकरभी वह कामिनी और सुरामिषको नहीं भूला था। त्रियों पर बलात्कार होते थे और शूद्र पददलित किये जाते थे। तर्कवितर्क करके समय और सम्पको क्षतविक्षत किया जाता था। जातिमद और कुलमदमें लोग मानवताको मूल गये थे। धर्मके नाम पर पशु होमे जाते थे। मानोंको क्रीतदास बनाया जाता था। ऐसी विषम स्थितीमें तीर्थकर महावीर कुण्डग्राममें अवतरित हुये थे। उन्हें ऋषभदेवके समान राज और समानकी व्यवस्था नहीं करना पड़ी थीन उनको मानवको सभ्यता और सस्कृतिको नई-नई शिक्षा देना पड़ी थी। ऋषमदेव सभ्यताके विधायक और धर्मके सत्यापक थे, किन्तु महावीर सभ्य संस्कृतिके उन्नायक और धर्ममार्गके सुधारक थे। उनके समयका मानव बहका हुआ या-जानबूझ कर झूठे श्रद्धानोंमे फसा हुआ या! आदिकालके मानवकी भाति वह मोला और अश नहीं था। ऐसे मानवोंके लिये धर्मविज्ञानका निरूपण - त्याद्वादतर्कणाके आधारसे करके महावीरने लोकका महती उपकार किया था। महावीरकोमी मानव'बुद्धिको संतोषित करनेके लिये धर्मसिद्धार्ताका विशद वर्णन ऋषभदेवके अनुरूप करना पड़ा था; किन्तु • महापौरके निस्पगमें तर्कणाको विशेष स्थान या । इस ज्येिही पटनरस्वामीका यह कथन. सार्थक है