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________________ श्री० सतीशचन्द्र काला। लिए एक २ रक्षक है। सिरके ऊपर छत्री है जिसके दोनों ओर गधर्व उडते दिखलाई दे रहे हैं। जिन बायें हाथमें कोई फल लिए हुए हैं। मूर्ति कोई ऐसा लक्षण नहीं जिससे उसका रूप बतलाया जा सके। ___ इसी शैलीकी छोटे आकारकी एक दूसरी मुर्तिभी है । इसमेंमी जटाधारी तीर्थकर पद्मासनमें बैठे हैं। वालमें एक २ जिन चित्रित है। इनके ऊपर फिर दो ओर सबसे उपर तीन खडे जिन भकित हैं। आसन तीन भागोंमें बना है। आसनसो दायों ओर नाग-फों के नीचे एक जिन बैठे हैं। बायीं ओर एक देवी वालकको गोदमें लिये हुये हैं। उसके साथ एक अन्य स्त्रीभी है। मूर्तिका ऊपरी तथा दायीं ओरके भाग खाडेत हो गए है। ____ पार्श्वनाथकी कई मूर्तियां प्रयाग संग्रहालयमें हैं । प्रायः पत्थरके सामने तथा एक ओर यह तीर्थकर कौसग्ग (कायोत्सर्ग) मुद्रामें खडे पाये जाते हैं। इनके पैरों के पीछेसे नाग घुमाव उठ कर, सिंहके ऊपर फर्णोका चदोवा प्रस्तुत करते हैं। कुछ मूर्तियोंमे दो रक्षक मान है, किंतु कुछमे रक्षकों के साथ एक २ बैठे उपासकभी हैं। (चित्र स. ५) ___जैन देवियोंकी योडीसी मृत्तिया प्रयाग संग्रहालयमें हैं। सबसे महत्वकी एक सुदर गठित चतुर्भुजी देवीको मूर्ति है । (चित्र स. ६) इसके चारों ओर प्राकारमें अनेक देवी, देवता तथा अलकरणके उपादान चित्रित है। देवीका कोई वाहन नहीं दीख पद्धता | चारों हाथभी खडित हो गए हैं। भावभगी मात्रसे यह महमानसीकी मूर्ति लगती है। पैरों के नीचे पीठिकाके मध्यस्थ एक नीलोपल है जिसके दोनों ओर उपासक बैठे हैं, और अगलवगलमें एक खडा तथा दूसरा सिंह पर चढा रक्षक अंकित है। देवीके दोनों ओर आठ २ विद्या देवियां तथा कुछ खडे निन चित्रित हैं। इन विद्यादेवियोंके रूप ऊपर खुदे नामोंसे ज्ञात हो सकते हैं। देवीके सिरके उपर एक उमदे हुये पटल पर नेमिनाथ तथा एक चतुर्भुजी देवी स्थापित हैं। इनके अगलवगलमेंमी कुछ देविया बनी हैं। कौशाम्बीसे कुछ सुदर आयगपट्टमी प्राम हुये हैं । प्रकृति के नाशकारी तत्त्वोंसे ये नटसे हो गए हैं। एक बड़े पत्थर पर २४ जिन आकेत हैं । पाच पक्तियोंमें तो जिन ध्यानमुद्रा में बैठे हैं। छटी पक्तिमें चारही जिन हे । प्रायः सभी जिनोंके चेहरे जान बूझ कर खडित किए गए हैं। दूसरा आयगपट्ट आकारमें छोड़ा है। इसमें दो पक्तियोंमें आठ २ जिन खडे हैं। नीचेकी पक्तिमें वायी ओरसे अकित पाच- जिनके सिरके ऊपर नागफणा है। इन आयगपटोंके जिनोंके कोई लक्षण अफित नहीं है, इसलिए अभी वास्तविक रूप नहीं जाना जा सकता। कुछ उदाहरणोंमें वक्ष पर केवल श्रीवत्स चिन्ह दीख पड़ता है। - -
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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