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प्रयाग संग्रहालयमें जैन मूर्तियां। - (श्री. सतीशचन्द्र काला, एम. ए., अध्यक्ष, प्रयाग सग्रहालय) जैन मूर्तिकला एक अति महत्वपूर्ण विषय है। गत पिछले ५० वर्षोंके बौद्ध तथा ब्राह्मण धर्मके अवशेषो पर बहुत कुछ शोध हुई तथा अनेक पुस्तके प्रकाशित की गई; किंतु जैन धर्मक स्मारकोंकी ओर विद्वानोंका किसी कारण कम ध्यान गया। फिरमी जैन धर्मका भारतीय संस्कृतिने एक विशिष्ट स्थान रहा है । बौद्ध तया अन्य मौकी तरह इस धर्मके अनेक अनुयायी भारतवर्षमै अभीभी वर्तमान हैं । किम्वदती है कि भारतके विभिन्न केंद्रोमें जैन देवोंकी मूर्तिया स्थापित की गई थी। माअट आव , पारसनाथ आदि स्थानों के जैन मदिर स्थापत्य कला के दर्शनीय उदाहरण है।
जैन धर्मके देवी देवताओंकी सूची विस्तृत है । इसमे २४ तीर्थकर, भवनपति, व्यतर, नक्षत्र यक्ष, यक्षी आदि सभी सम्मिलित हैं। किंतु इनमें जैन तीर्थंकरोंकोही प्रधानता दी गई है। कई हिंदू धर्मके देवी देवता गणपति, लक्ष्मी तथा सरस्वतीभी गौण रूपमें जैन मूर्तियोंके साथ अकित हुये है। प्राय. जैन मूर्तिया कायोत्सर्ग तथा पद्मासनमें दीस पडती है। बुद्ध भगवान्की तरह तीर, महावीर लिएभी कुछ विशिष्ट लक्षण कल्पित किए गए है। तीर्थंकरोंकी मूर्तियोंको पहिचाननेमे ३ लक्षण विशेष सहायक हुये हैं। जैन मूर्तिकलाके विषयमी अति सीमित हैं। जैन सूत्रोंसे ज्ञात होत है कि ई० सन् को प्रथम शताब्दीमें श्वेताम्बर तथा दिगम्बर मत उद्भुत हुये। इस मतमेदक सबंधौ नाना प्रकारको व्याख्याए, प्रचलित है किंतु यह सभी मानते हैं कि यह विभाजन महावीर निर्वाणके ६०९ वर्ष बाद हुआ।
जैन लों, जिनका निर्माण काल ई० पू० २०० के लगमगसे है, से ज्ञात होता है कि महा. वीरसे पहिलेभी कई जिन मर्ति रूपमें पूजे जाते थे। मतिपूलामें दसरा महत्वपूर्ण परिवर्तन ७ वी शताब्दीके आमग हुआ । इस समय साख्य योग तथा तसबधी सिद्धांतोंका प्रचलन हो रहा था। १० वीं शताब्दीमें कुछ हिंदू देवता जो तीर्थंकरोंकी मूर्तियोंमें गौण रूपसे अकित थे, प्रभुत्व पाकर स्वतत्र पसे पूजे जाने लगे। ११ वीं शताब्दी के बाद कुछ और देवता स्वतन्त्र हुये । मध्यकालका यह प्रारंभ था। जिस प्रकार हिंदू धर्मकी मूर्तियोंमें अलकरण प्रधान होगया, वैसेही जैन धर्मकी मूर्तियाँम मी अधिक कौशल तथा अलकरण आया । दक्षिण भारतमें अनेक पीतलकी सुदर बैन मूर्तिया बनी।
पुरातत्व तथा इतिहासके दृष्टिकोणसे थोडीसीही जैन मर्तिया अब तक पास हुई हैं। इसका अर्थ यह नहीं है, कि जैन मूर्तिया युग २ में दो चारही बनीं । वास्तविक बात तो यह है कि एक कामिक व्यवस्था के अनुसार इस विषय पर आज दिन तक शनवीन नहीं हुई है। खारवेल के शिक्षा लेखसे ज्ञात होता है कि ई० पू० चतुर्थ शताब्दीमें साध तथा कालिगामें जैन मूर्तियां पूजा जाती थी।