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जैन स्तूप और पुरातत्त्व । (ले० श्री नीलकण्ठ पुरुषोत्तम जोशी, लखनऊ सग्रहालय) अपने अपने प्रधान आचार्योंकी समाधियोंका पूजन प्रत्येक धर्म एव सप्रदाय, अत्यन्त पवित्र कार्य माना जाता है । बौद्ध और जैन सप्रदायोंमें स्तूप निर्माण और पूजन इसी पद्धतिका प्रतीक है। मूलतः स्तूपोंका निर्माण, किसी आचार्य विशेषकी स्मृतिमें, किया जाता था। गौतम बुद्धके पाञ्चमौतिक अवशेषों पर अष्टस्तूपोंका निर्माण किया जाना प्रसिद्धही है । उसके उपरान्तमी भिन्न भिन्न बौद्ध आचार्योंके अवशेषों पर स्तूप बनते रहे । परवर्ती कालमे इस पद्धतिका इतना अधिक प्रचलन हुमा कि स्तूपके आकारकाही पूजन पुण्यकार्य माना जाने लगा। फलतः लाखों और करोडोकी संख्या में लाक्षणिक स्तूप ( votive stupas ) बनने लगे और स्तूप स्वयही एक प्रकारकी देवप्रतिमा परिवर्तित होगया । यही परपरा हमें जैनोममी मिलती है। जैन और बौद्ध धर्म लाभग समकालीन होनेके कारण यह कहना कठिन है कि स्तूप-निर्माण योजनाका उद्गम किस संप्रदायसे हुआ। जिस प्रकार आज बौद्ध स्तूप सारे भारतमें विद्यमान हैं उसी प्रकार एक समय जैन स्तूपभी थे परन्तु बौद्धोंकी परपरा अक्षुण्ण बनी रही और जैनोंकी विलीन हो गई। इस लेखका विषय साहित्य और पुरातत्त्वकी सहायतासे एक समय भारतमें फैले हुए जैन स्तूपोंका सक्षिप्त अनुशीलन है।
'राजावलीकथा' में इस बातका उल्लेख मिलता है कि आचार्य भद्रबाहुके गुरु गोवर्धन महामुनि कोटिकापुरमें जम्बुस्वामिके स्तूपका दर्शन करनेके लिये अपने शिश्य समुदायके साथ गये थे। यह तो दिगवर और श्वेतावर दोनोंहीको समान रूपसे मान्य है कि जम्बुस्वामि अन्तिम केवली थे और उनके बाद भगवाह पाचवे श्रुतकेवली हुए हैं । आचार्य भद्रबाहु चन्द्रगुप्त मौर्य के दीक्षागुरु थे। इसलिये इनकामी समय ई० पू० तृतीय शताब्दि था; अर्थात् इस कालसे कुछ पहिलेही कोटिकापुर, नम्नुस्वामिका स्तूप रहा होगा।
भगवान महावीरके निर्वाणके पश्चात् पावापुरीमें देवोद्वारा एक स्तूप निर्माणका उलेख जैन शास्त्रों में मिलता है, परन्तु पुरातत्त्व इस विषयमें मौन है।।
'नित्योगाली पदण्ण्य से इस यातका प्रमाण मिलता है कि एक समय पाटलिपुत्रभी जैन धर्मका प्रमुख केन्द्र था। नन्दोंने यहां पर पाँच जैन स्तूप बनवाये थे जिन्हें कल्कि नामक एक दुष्ट रानाने धनकी खोनमें खुदवा डाला था। युवानचाँगनेमी पाटलिपुत्रके पास पश्चिममें पाँच स्तूप
* इस लेखके लेखनम श्रीयुत कामताप्रसादजी जैनने मुझे अत्यधिक सहायता की है, अतएव में उनका विरकृतज्ञ हूं।
9. B Lewis Race-Inscription at Sravan Belgola, p. 3 २. पावापुरी तीर्थका प्राचीन इतिहास पृ० १. ३. तित्योगाली पापण्यकलिकमकरण.