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चिर ,अतीतके धर्म-चीर उतरो नूतन बन !
(श्री. शिवसिंह चौहान, 'सरोज' साहित्य-रत्न ) हे पूर्ण पुरातन, मन, अभय, . "रे, सत्य-अहिंसा सीख, सीखहे दिव्य, अनामय चिर अशेष ! यम-नियम, जाति-विद्वेष त्याग। तुम अभिनय, अभिनव गति महान कर दया-बाहमें पुण्यं स्नान, अभिनव अभिनन्दन, नय-निवेश !! रे जीर्ण रूढिगत मनुज, जाग॥ युग-परिवर्तक, युग गति-वाहक, . "कैसा जगती पर अनाचार" युग युग अजेय दुर्द्धर्ष 'वीर'। कैसा दुख, कैसा पर-पीडन । भारत-भूतल कर गये स्वर्ग
उपकार त्रस्त अभिशापित का, नारकी विश्वका वक्ष चीर ।
रे, महामहिम मानवका धन ||" : हिंसक समष्टिको दृष्टि हुई
अस्वस्थ देख, हो मनः क्लान्त, मय-सास, मिला आलोक सघम। इस भ्रान्त राष्ट्रको स्वस्थ ज्ञानअभिनवोत्थान-पथ पर पहुँचा । था दिया तुम्हीने 'महावीर इस जीणं जातिका जर्जर मन ॥ . क्षत निठुर वीरता कर महान ।। हिंसाकी वेदी पर पोपित " .. अपमानित हो नित दलित वर्ग युग-राष्ट्रधर्म अनुदार प्रबल
सहता था क्या-क्या अनाचार। अभिसिवित हुआ अहिंसाके- तुम साम्यरूप ! बन गूंज उठे शुषि मधु रससे पावन अविरल ॥ समताकी ममताका प्रसार । वैशाली के अवशेष वहन
बोले तुम-"जगका महस्सृजन करते अवमी चे सदुपदेश।
रे विश्व नियंताकी माया। करता अवमी पाख्यान सरल
अभिनय युग-नाटकका महान निज भाल उठा हिमगिरि नगेश ॥ करती प्रतिदिन भगुर काया॥ वहता है पुण्य प्रस् भू पर
" इति पर अभिनयकी, भूप-मृत्य नैसर्गिक जीवनका प्रवाह ।
होते हैं प्रतिपल सष समान। गुञ्जित अम्बरमें, श्रुतियोंमें
उस अविकारी के रूप मनुज नयामिनित वे स्वर अनवगाह
हों विषम-रे कैसा विधान !"