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* The Jain View of Ahimsã'. Br SxT HARISATYA BHATTACHARYA, MA, B. L., Ph D. [श्री हरिसत्य भट्टाचार्यजीने प्रस्तुत लेखमें जैन दृष्टिसे अहिंसाका विवेचन किया है। उन्होंने लिखा है कि कषायपूर्वक द्रव्य या भाव प्राणोंका व्यपरोपण करना हिंसा है । कषायही कायेको हिंसामय अथवा अहिंसामय बनाने में कारणभूत हैं। कषाय वासनामय उतेजन हैं (जो आत्मस्वभावको ढकती है ) वह मान, माया, लोभ, क्रोधरूप है । यहमी प्रत्येक वितम, तीव्र, मन्द, मन्दतम है जो क्रमश अनन्तानुवन्धी, प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान और संज्वलन कहलाते हैं । कषायक अतिरिका नोकषायभी-वासनामय-उत्तेजनायेंभी हिंसा कारणभूत हैं। वे राग, द्वेष, मोह, काम, हास्य, भय, शोक, जुगुप्सा और प्रमाद-कुल नौ है। सोलह प्रकारके कषाय और नौ नोकषाय, इस प्रकार कुल २५ वासना वर्द्धक उत्तेजनायें है । इनमेंसे किसीभी वासना उत्तेजनाके वशवत्ती होकरही मानष हिसा कर्म करता है। इनके आधारसे हिंसा-अहिंसाको विविध भावमनिया जैनोंने निर्धारित की हैं। ऐसे फर्मभी हो सकते है जिनमें द्रव्य हिंसा न होते हुएभो हिंसाका दोष व्यक्तिको लग सकता है और ऐसेमी कर्म हैं जिनमें हिंसा हो जानेपरमी व्यक्तिको उसका दोषी नहीं कहा जा सकता । भावोपरही हिंसा और अहिंसा का होना अवलंबित है। कषाय यदि विद्यमान है तो वह कर्म हिंसामय है। कषायका अभाव अहिंसामय है। इस वैज्ञानिक विधिविधानसे जैन भहिंसा सिद्धातकी भावभीड़योंकी तुलना दंड विधानके अपराधोंस को जाना सुगम है । बुरे उद्देशसे जोमी कार्य किये जात हैं और जिनसे दूसरे को क्षति पहुंचे तो दढ विधानमें वह अपराध गिना जायगा और नैतिक धम की दृष्टिमें वह पापाचार होगा। किसी दुर्भाग्यसे सकल्पपूर्वक जो कार्य नहीं किया गया, बल्कि जो आकस्मिक है वह न अपराध है और न पाप एक रोमी रस दवाके देनेपरमी मर जाता है जिसको डॉक्टरनें सावधानीसे उसके लिये हितकर जानकर दो, तो डॉक्टर उसके मृत्युका अपराधी या पापा नहीं कहा जा सकता। यदि प्रमाढ नोकषाय होती तो डाक्टरको दोषी कह सकते थे। किन्तु कानून और नैतिक धर्माचारमें अन्तर है । चारिन धर्ममें तो कषायका सद्भावही पापमय है, परंतु कानूनमें वह कोई अपराध नहीं। जैनोंकी अविरति (अविरमण) हिंसाके लिये दट विधानमें कोई स्थान नहीं है बल्कि परिणमन हिंसा, जिसमें द्रव्यहिंसा अवश्यम्मावी है, को ही दडविधान स्वीकार करता है । जैन दृष्टिसे भावके आधारपर व्यतिके कर्मको शुभाशुभम परिगणित किया जा सकता है। हेमलेट नाटकमें हत्या के प्रसगमें हत्यारा कहता है कि जब उसका विपक्षी मगवानका भजन करता होगा, तब वह उसका प्राणात करेगा जिससे उसे स्वर्गसुख मिले ! स्वर्गसुख दिलानेकी बात हस्याके दोपको मिटा नहीं सकती। जैन मान्यताके अनुसार व्यक्तिक स्वकर्मही उसे नई स्वर्गमें पहुंचाते हैं। भगवद्भचन के समयमें मारनेसे व्यक्ति हत्याके दोपसे मुक्त नहीं हो सकता। म. गाधीने दुखी बछडेको करणासे प्रेरित हो प्राणान्त कर देना विधेय ठहराया, परतु बैनदृष्टिसे तो वह हिंसाकम या। जीवको सुखी-दुखी कोईभी बाहरी वस्तु नहीं बनाती । जोधके सचित कर्म उसे सुखी-दुखी बनाते हैं । यहडेको मार देनेसेही वह सुखी नहीं हो सकता, क्योंकि जबतक उसके मसाता कर्म उदयमें है तबतक कोईभी उसे सुखी नहीं बना सकता । जैन पशुयज्ञ हिंसाकभी विरोधी है और भोजन के लिएभी हिनाका निषेध करते है। जन मुनिही अहिंसाका पूर्णाशीमें पालन करत है। गृहस्य जन उसको आशिक (मणुत्रत) रूपमें पालते है। -का-प्र.]
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