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________________ श्री० नाथूलाल जैन । १३५ शुभ और शुभ ग्रहो के अंश में दिगंबर मुनि दीक्षा लेना चाहिए।' ऊसर भूमिमें वोया हुआ चीज फल नहीं दे सकता | उत्तम फलकी प्राप्तिके लिए भूमिको सुसंस्कृत करना आवश्यक है । इसके पूर्व उन्हीं आचार्य ने बताया है कि " जिस प्रकार विशुद्ध खानसे उत्पन्न हुई मणि संस्कार के निमित्तसे अत्यंत उज्ज्वल हो जाती है उसी प्रकार यह आत्माभी क्रिया मत्रोंके संस्कारसे अत्यत निर्मल हो जाता है । अथया जिस प्रकार सुवर्ण पाषाण उत्तम क्रियाको पाकर शुद्ध हो जाता हूँ उसी प्रकार यह भव्य पुरुषभी उत्तम क्रियाओंको पाकर शुद्ध हो जाता है । " यह द्रव्यगीनि उदाहरण से यहभी जान लेना चाहिए कि उक्त पात्रता और क्रियाओंके होनेपरभी वे अपने उपादान अंतरंग आत्मा के तत्वज्ञानविना नवत्रैवेयकसे आगे नहीं जा पाते । तत्वज्ञानी ( सम्यग्दृष्टि ) की क्रियायें शुभ होती है, पर शुभ क्रिया करनेवाला तत्वज्ञानी होकर मुक्त होवाही है यह व्याप्तिी नहीं । इस लिए स्वयं जिनसेनस्वामीभी कहते हैं कि यह सस्कार शानसे १६ उत्पन्न होता है, सबसे उत्तम सम्यग्ज्ञान है। अतः सम्यग्टष्टियको उत्तम फल देनेवाली और शुभ करनेवाली क्रियाओंको करना चाहिए। ये क्रियायें गर्भान्वय, दीक्षान्वय और कर्तृन्वयके भेदसे ३ प्रकारकी आदि पुराणकारने बताई है । गर्भान्वय क्रियायें ५३ हैं जिनमें गर्भधारणसे लेकर निर्वाणपर्यन्त के सस्कार और आचरण आजाते है। वर्तमान जीवन में गर्भाधान से प्रारभ कर प्रतिमाह गर्भके बालकके संस्कार किये जाते हैं और उत्पन्न होने पर नामकर्म, शिक्षाधारभ, विवाह, कुलचर्या, गृहत्याग, सुनिदीक्षा और अंत में तीर्थकृत भावना एव समाधिमरण किया जाता है। इससे वह जीव स्वर्गमें इन्द्र पद प्राप्त कर वहांसे तीर्थकर होता है और अतमें मोक्ष प्राप्त करता है। यह व्यावहारिक बाह्य एवं marte huats वास्तव में जीवन के निर्माण एव विकासके लिए अनुपयोगी है। इससे डासारिक और आध्यात्मिक जीवन कितना पवित्र और उन्नत बन सकता है यह इस प्रकरणको ध्यानसे देखने पर ज्ञात हो जाता है। Chatras far ४८ है जिनमें उक्त क्रियाओंमें १४ व ५३ वीतक और अवतारादि ८ और है । व्रतका धारण करना दीक्षा है । मतग्रहण करनेके लिए जो मनुष्यकी प्रवृत्ति है उसके साथ होनेवाली क्रियायें दीक्षान्वय कहलाती हैं। इनमेंभी मिय्यात्रका त्यागकर जैनधर्म स्वीकार करने आदिका क्रम है। कर्त्रन्वय क्रियायें ७ हैं, जो पुण्यवार्लोको प्राप्त होती हैं । यही सप्तपरमस्थान कही जाती हैं। वेद (श्रुतज्ञान ), पुराण, स्मृति ( धर्मशास्त्र ), चारित्र, क्रियाविधि, भत्र, देवता ( तीर्थकर ) लिंग (निर्मेय) आहार (मासादिदोषरहित ) और बुद्धि ( अहिंसायुक्त ) का जैनाचार्योंने निरूपण किया है जिसे श्रेष्ठमार्ग और धर्म मानना चाहिए। यह सर्व व्यवहार धर्म है। शास्त्रस्वाध्याय, १६. मादिपुराण पर्व ३९ श्लो. ९२. १५. आदिपुराण पर्व ३९ क्लो. ९०,११. १७. आदिपुराण पर्व ३९ इलो. २० ते ३१.
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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