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________________ श्री० नंदलाल जैन। होगा। अब लोग इस प्रश्नको हल करने के लिए एक दूसरा यन्त्र बना रहे हैं, जिससे सम्भव है के ऐसा कर सकें। यह शक्ति जिसे पता लगानेकी चेष्टा की जा रही है, आत्मा नहीं हो सकती, क्योंकि वह तो अमूर्तिक है, परन्तु इसकी तुलना तैजस शरीर ( Electric body) से अवश्य की मा सकती है, जो आत्मासे बहुतही घनिष्ट सम्बन्ध रखता है। भास्माकी खोजके प्रयासने इस एक • नए वपकी पुष्टि की है। यह ठीक है, कि वैज्ञानिकोंने आत्माकी सत्ता नहीं जात की है, पर आत्म-सम्बन्धी तत्त्वोंके जानकार सर ओ, लोजके अनुवाइनने आमाके अस्तित्वको निस्सन्देह सिद्ध किया है । "प्रोटोपानज्म " [ Protopalsm is nothing but a viscous Aund which contains every lit ing cell] के सिद्धान्त तथा सर जगदीश वसुके पौधों सम्पन्धी आविश्कारने आत्माकी संकोच-विस्तारवाली प्रवृत्ति सिद्ध कर दी है । स: अमूर्त द्रव्य (२) आकाश निरूपण आकाशसे हम हिन्दुओंका सृष्टि-मूलभूत आकाश नहीं लेते, अपितु वह, जो जीव, पुल धर्म, अधर्म एव काल द्रव्यों के लिए स्थान दे । आकाशका यह लक्षण है। और द्रव्योंको अवकाश दान देना उसका कार्य है। यह द्रव्योंका अवगाहन ( Accomodation and diffusion ) में कारण है। अमूर्त होनेसे धर्मादि द्रव्यके एकत्र रहने कोई विरोध नहीं आता है। आकाश नित्य, व्यापक एवं अनन्त है। यह दो प्रकारका है (१) लोक (२) अलोक । लोकाकाशमेही बाकी पाच द्रव्य रहते हैं. अलोकाकाशमें नहीं। इसलिए जगवकी सीमा है लोकाकाश पर्यन्त, उसके बाद आकाश तो है, पर वहा लोक नहीं । लोकाक्राशके बाहर जीव जा भी नहीं सकते, क्योंकि वहा धर्म और अधर्म द्रव्ये नहीं हैं, जो कि गति और स्थितिमें सहायक है। आकाश स्वय गति-स्थिति-माध्यम नहीं हो सकता, क्योंकि फिर (१) सिद्धोंकी मुक्ति स्थिति नहीं बनेगी (२) अलोकाकाश नहीं बनेगा (३) जगत असीम हो जावेगा, एव (४) उसकी स्थिरता एव अनन्तताभी न बनेगी। नगत अधूरा और अवास्तविक है । जगतकी स्थिति (समय) कालके कारण है। एष गति स्थिति धर्म-अधर्मके कारण । आकाशका माप प्रदेश है। यह सत्य है, कि, विज्ञान आकाशको एक स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानता, फिरमी आकाशमें विद्यमान समस्त गुणोंको स्वीकार करता है । लोकाकाश एव अलोकाकाशके विषयमें H. Ward at यह अभिमत उल्लेख योग्य है। " the total amount of matter which exists is limited and that the total extent of the universe [ 25 ]is finite. They do not conceive that there is limit beyond which no space exists. ." लोकाकाश (जगत) सीमित है। यदि आकाशमै वस्तु हो तो गोलाकार रूपमें उसका झुकाव होता है। वार्डका कहना है, कि लोकाकाशका धुमाव इस प्रकार है, कि यदि
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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