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अब तक न समझ ही पाया प्रभु !
सच्चे सुख की भी परिभाषा ॥१६॥ तुम तो अविकारी हो प्रभुवर !
जग में रहते जग से न्यारे । अतएव झुके तब चरणों में,
जग के माणिक मोती सारे ॥१७॥ स्याद्वाद मयी तेरी वाणी,
शुधनय के झरने झरते हैं । इस पावन नौका पर लाखों,
प्राणी भव-वारिधि तिरते हैं ॥१८॥ हे गुरुवर ! शाश्वत सुख-दर्शक,
यह नग्न स्वरूप तुम्हारा है। जग की नश्वरता का सच्चा,
दिग्दर्श कराने वाला है ॥१६॥ जब जग विषयों में रच-पच कर,
गाफिल निद्रा में सोता हो। अथवा वह शिव के निष्कंटक,
पथ में विष-कंटक बोता हो ॥२०॥ हो अर्ध निशा का सन्नाटा,
वन में वनचारी चरते हो । तब शान्त निराकुल मानव तुम,