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निर्मल भाव ।
कछू उपाव ||६||
तिहुं जगकी पीड़ाहरन, भवदधि शोषणहार । ज्ञायक हो तुम विश्व के, शिवसुख के करतार ॥ ३॥ हरता अधअंधियार के, करता धर्मप्रकाश । थिरतापद दातार हो, धरता निजगुण रास ||४|| धर्मामृत उर जलधिसों, ज्ञानभानु तुम रूप । तुमरे चरणसरोजकों, नावत तिहुंजग भूप ॥५॥ मैं बंदों जिनदेव को कर अति कर्मबंध के छेदने, और न भविजनकों भव-कूपतें, तुमही काढनहार | दीनदयाल अनाथपति, आतम-गुण-भडार ॥७॥ चिदानंद निर्मल कियो, धोय कर्म-रज मैल । सरल करो या जगत में, भविजन को शिव-गैल ||८|| तुम पदपकज पूजतें, विघ्न रोग टर जाय । शत्रु मित्रता को धरें, विप निरविषता थाय ॥ ६ ॥ चक्री - खगधर - इन्द्र पद, मिलें आपतें आप । अनुक्रमकर शिवपद लहैं, नेमसकल हनि पाप ॥ १० ॥ तुम बिन मैं व्याकुल भयो, जैसे जलबिन मीन । जन्मजरा मेरी हरो, करो मोहि स्वाधीन ॥११॥
पतित बहुत पावन किये, गिनती कौन करेव । अंजन से तारे कुधी जय जय जय जिनदेव ||१२||