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ऐसे वचन सुने सुरपतिके धनपती । . चल आयो ततकाल मोद धार अती ॥ वीतराग छवि देखि शब्द जय जय चयो।
दै परच्छिना वार बार बंदत भयो । अति भक्ति भीनो नम्र-चित ा समवशरण रच्यो सही। ताकी अनूपम शुभगतीको, कहन समरथ कोऊ नहीं । प्राकार तोरण सभा मण्डप कनक मडिमय छाजही । नग जड़ित गंधकुटी मनोहर मध्यभाग विराजही ॥३॥
सिंहासन तामध्य बन्यो अद्भुत दिपै । तापर. बारिज रच्यो प्रभा दिनकर छिप ।। तोनछत्र सिर शोभित चौसठ चमर जी ।
महाभक्तियुत ढोरत हैं तहां अमरजी ॥ प्रभु तरन नारन कमल ऊपर, अंतरीक्ष विराजिता। यह वीतराग दशा प्रतच्छ विलोकि भविजन सुख लिया । मुनि आदि द्वादश सभा के भवि जीव मस्तक नायक। बहुभांति वारंवार पूज, नमै गुणगण गायक ॥४॥
परमौदारिक दिव्य देव पावन सही। क्षुधा तृपा निता भय गद दूषण नहीं।। जन्म जरा मृति अरति शोक विस्मय नसे।
राग दोष निद्रा मद मोह सबै खसे ।। श्रमविन श्रमजल रहित पावन अमल ज्योतिस्वरूपजी। शरणागतनिकी अगुचिता हरि करत विमल अनूपजी।। ऐसे प्रभुकी शांति मुद्राको न्हवन जलतं करें । 'जस' भक्तिवश मन उक्तितें हम भानु ढिग दीपक धरें॥५॥