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स्वाभाविकपरिणति मयअछीन ॥५॥ अप्टादश-दोषविमुक्त धोर,
स्व-चतुष्टयमय राजत गंभीर । मुनिगणधरादि सेवत महंत,
नवकेवललब्धिरमा धरंत ॥६॥ तुम शासन सेय अमेय जीव,
शिव गये जाहिं जैहैं सदीव । भवसागर में दुख छार वारि,
तारन को अवर न आप टारि ॥७॥ यह लखि निज दुखगद हरण काज,
तुम ही निमित्तकारण इलाज । जाने तातै मैं शरण आय,
उचरों निज दुख जो चिर लहाय ॥८॥ मैं भ्रम्यो अपनपो विसरि आप,
अपनाये विधि फल पुण्य पाप । निजको परको करता पिछान,
पर में अनिष्टता इष्ट ठान ॥६॥ आकुलित भयो अज्ञान धारि,
ज्यों मृग मृगतृष्णा जानि वारि । तनपरणति में आपो चितार,
कबहूं न अनुभयो स्वपदसार ॥१०॥