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विषापहार स्तवन उद्धार,
सुक्ख औषधी अमृत सार ॥३॥ मेरा मंत्र तुम्हारा नाम,
तुम ही गारुड गरुड समान । तुम सम वैद्य नहीं संसार,
तुम स्याने तिहुँ लोक मंझार ॥४॥ तुम विषहरण करन जग सन्त,
नमो नमों तुम देव अनन्त । तुम गुण महिमा अगम अपार,
सुरगुरु शेष लहैं नहिं पार ॥५॥ तुम परमातम परमानन्द,
कल्पवृक्ष यह सुख के कन्द । मुदित मेरु नय-मण्डित धीर,
विद्यासागर गुण गम्भीर ॥६॥ तुम दधिमथन महा वरवीर,
संकट विकट भयभंजन भोर । तुम जगतारण तुम जगदीश,
पतित उधारण विसवाबीम ।।७।। तुम गुणमणि चिन्तामणि रास,
चित्रबेलि चितहरण चितास । विघ्नहरण तुम नाम अनूप,