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निवार
विषयी मनुष्य और सिंह आदि का, मन से किया विचार । स्थूल शरीर के ये हैं नाशक, शील न नाशँ लिगार रे । स । १२५ । भौतिक पिंडे मुझे श्रद्धा, धर्म परम उसके खातिर इसको तज दूं, यही मर्म मन सागारी अनशन सती कीनो, समरे श्री सिंह सामने चली सती जी, धीरज मन में मृग सम मृगपति हुआ सती को, हुआ न दुख अनशन पाली वनफल खाये, लीनी क्षुधा संध्या समय इक केलिगृह में, सती ने मार्गश्रम से सोई अकेली, धर जिनवर दिनपति जब अस्ताचल पहुंचे, तम छाया सिंह शब्द घनघोर भयंकर, कायर मन परमेष्ठि का ध्यान धरे सती, मन में मध्यरात्रि में प्रसव वेदना, पुत्र हुआ शीतल - पवन तब करे सहायता, पक्षी दिनपति ने परकाश दिखाया, लाल रंग मातृ-प्रेम से देखे सतीजी, मन में चिन्तै वन में जन्म हुआ तुम लालजी !, क्या दिखलाऊं प्रेम रे । स । १३३ । सावधान हो मन में सोचे, शुद्ध करूं मुझ काय । साड़ी फाड़ एक झोली करली, लाल को दिया सुलाय रे |स | १३४ ।
एम ।
वन देवी ! वन देव ! तुम्हारी, शरण रहे यह बाल । मन रखवाला मेल सतीजी, आई सरवर पाल रे । स । १३५ । स्नान से शुद्ध करे चित्त तो, पुत्र-प्रेम के मांय । मस्त हाथी इक सती पर दौड़ा, वह दौड़ी साहस लाय रे । स । १३६ । पीछा नहीं छोड़ा उस करि ने, दीना गगन उछाल । स्मरण करतां मूर्च्छा आई, दुख से हुई बेहाल रे । स । १३७ । नीचे पड़तां विद्याधर ने, झेली शीतल जल उपचार करीने, मूर्च्छा दीनी भगाय रे । स ।१३८ । देख रूप सती का विद्याधर, भूला भान विशेष । रूप-राशि मुझ आई हाथ में, विलसूं सुख विशेष रे । स । १३६ ।
करुणा लाय ।
1
सुखदाय ।
लाय रे । स । १२६ ।
नवकार ।
धार रे । स । १२७ ।
लिगार ।
लीना
विश्वास
वास ।
वन
कंपाय
रे | स |१२८ |
मांय ।
चेत
तम-हार
मंगल
रे । स । १२६ ।
अपार ।
फैलाय
रे । स । १३०।
रे । स । १३१ ।
गाय ।
रे । स । १३२ ।