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को सफलता से पूर्ण करने के लिए शिक्षा होनी चाहिए। प्रत्येक वस्तु का गहरा अध्ययन होने से ही उसकी उपयोगिता और अनुपयोगिता का पता चलता है। सुशिक्षिता स्त्रियां सफल गृहिणी और सफल माता वन कर गृहस्थ जीवन को स्वर्ग बना सकती हैं।
वास्तव में स्त्री-पुरुष का श्रम-विभाजन ही सर्वथा उचित और अनुकूल है। दोनों के क्षेत्र भिन्न-भिन्न होते हुए वरावर महत्त्वपूर्ण हैं। पुरुप पैसा कमा कर लाता है और स्त्री उसका भिन्न-भिन्न कार्यों में उचित विभाजन करती है। न स्त्री ही पुरुष की दासी है और न पुरुष ही स्त्री का मालिक है। दोनों प्रेमपूर्वक अगर मैत्री सम्बन्ध रखेंगे, तभी गृहस्थी सुखमय होगी। स्त्री को गुलाम न समझ कर घर में उसका कार्य क्षेत्र भी उतना ही महत्त्वपूर्ण समझा जाना चाहिए। परन्तु पुरुप-समाज में ऐसे बहुत ही कम लोग होंगे, जो ऐसी मनोवृत्ति के हों। ऐसी विषम परिस्थितियों में कम से कम स्त्री में इतनी योग्यता तो होनी ही चाहिए कि स्वतन्त्र रूप से वह अपना जीवन-निर्वाह कर सके। विशेप प्रतिभावान स्त्री अगर अपनी प्रखर प्रतिभा से समाज को विशेष लाभ पहुंचा सकती है तो उससे उसे वंचित न रखा जाना चाहिए। पर साधारण स्त्रियों को अपनी गृहस्थी की अवहेलना न करना ही उचित है। शिक्षा के क्षेत्र में उन्हें प्रतिवन्ध तो कुछ होने ही नहीं चाहिए।
शिक्षा के अभाव में भारतीय विधवा-समाज को बहुत हानि उठानी पड़ी। उनका जीवन बहुत कष्टमय और दुखी रहा। कुटुम्व में उनको कुछ महत्त्व नहीं दिया जाता है और बहुत वन्धन में रह कर जीवन व्यतीत करना पड़ता है। अगर प्रारम्भ से ही इनकी शिक्षा का पूर्ण प्रवन्ध किया जाता है और अपनी आजीविका चलाने लायक योग्यता इनगें होती तो इनका जीवन सुधर सकता था। समाज को इनकी प्रतिभा से बहुत कुछ लाभ भी मिल सकता था।
एक कुटुम्ब में यह आवश्यक है कि पति अवश्य ही पर्याप्त रुपया कमाए जिससे कि जीवन-निर्वाह हो सके। अगर कोई पति इतना नहीं कर सकता हो तो समस्त कुटुम्ब पर आफत आ जाती है। कई परिवार ऐसे हैं, जिनमें गृहपति के वन्धुगण या वच्चे नहीं कमा पाते और फलस्वरूप वह कुटुम्ब वर्वाद हो जाता है। अगर स्त्रियां सुशिक्षित हों तो वे ऐसी परिस्थितियों में पति का हाथ बंटाकर उसकी सहायता कर सकती हैं। श्रमविभाजन का यह तात्पर्य तो कदापि नहीं कि स्त्रियां पैसा कमाने का कार्य करें ही नहीं। अगर उनमें इतनी योग्यता है तो उनका कर्तव्य है कि वे आपत्ति के समय पति की यशाशक्ति मदद करें। आखिर जिसे जीवन-साथी बनाया है, उसके दुःख में दुःख और सुख में सुख मानना ही तो स्त्रियों का कर्तव्य है।
हर एक स्त्री को पढ़ लिखकर विल्कुल पुरुषों के समान स्वतन्त्र होकर नौकरी आदि करना चाहिए, यह विचार भी युक्तिसंगत नहीं। हर एक स्त्री यदि ऐसा करने लगे तो घर की व्यवस्था कैसे हो? संतान का पालन-पोषण कौन करे ? घर की प्रत्येक वस्तु को हिफाजत से यथास्थान कौन रखे और खानपान का उचित वन्दोवस्त कैसे हो ? नौकरी भी करते रहना और साथ में इन सब बातों का इन्तजाम भी पूर्ण रूप से करना तो बहुत ही कष्टसाध्य होगा। अगर कोई ऐसी असाधारण योग्यता वाली महिला हो तो वह जैसा चाहे, वैसा कर सकती है।
. चाहे ऐसी परिस्थतियां कभी उत्पन्न न हों पर प्रत्येक अवस्था में स्त्री को अपनी स्वतन्त्र आजीविका चलाने लायक योग्यता प्राप्त करनी चाहिए। स्त्री का पुरुप पर किसी बात पर निर्भर न होना और पुरुष का खी पर किसी बात पर निर्भर न रहना कोई अनुचित बात नहीं। जो स्त्री घर के कार्यक्षेत्र में रुचि न रख कर किसी अन्य
त्र के लिए योग्य होकर अपनी शक्तियों के विकास का दूसरा मार्ग ग्रहण करना चाहती है, उसे पूरी स्वतन्त्रता दी
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