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गिरफ्तारी की आशंका दिल्ली से आग्रह भरी विनती पर आपश्री जगनापार पधारे, तब गोरों का दमन चक्र भीषण हो चला था । श्रावकों ने प्रवचनों में राष्ट्रीय विचार न रखने का आग्रह किया, इस पर सिंह गर्जना करते हुए आत्मधर्मी जवाहर ने अपनी राष्ट्रची भूमिका को स्पष्ट किया और कहा कि मुझे अपने दायित्व का पूरा भान है। मैं जानता हूं धर्म क्या है ? .... कर्त्तव्य पालन करते हुए जैन समाज का आचार्य यदि गिरफ्तार हो जाता है तो इसमें जैन समाज को नीचा देखने जैसी कोई बात नहीं है। कहना न होगा कि आपक्षी की व्याख्यानधारा निर्वाध रूप से उसी तरह प्रवाहित होती रही।
अजमेर साधु सम्मेलन --- दिल्ली की कार्य योजना सफल हुई और अजमेर में साधु सम्मेलन ५-४-१६३३ को प्रारंभ हुआ, इसमें आपश्री ने 'श्री वर्धमान संघ की प्रभावी, एक्य संस्थापक योजना रखी। एक समाचारी की रूपरेखा का निर्माण अति महत्वपूर्ण उपलब्धि रही। आचार्यश्री का रचनात्मक योगदान अविस्मरणीय रहा।
युवाचार्य चादर प्रदान - आचार्य प्रवर ने श्री गणेशीलालजी ग.सा. को जावद में सं. १६६० की फाल्गुन शुक्ला ३ को युवाचार्य पद की चादर प्रदान करते समय कहा कि अनुशास्ता को बीकानेरी मिश्री के कुंजे के समान होना चाहिये, वह अन्याय के प्रतिकार में कठोर से कठोर रहे किन्तु सत्य और न्याय के लिए मुंह में रखी हुई मिश्री के समान मीठा और नम्र रहे। मिश्री का कुंजा सिर पर गारने से सिर फूट सकता है । किन्तु उसका टुकड़ा मुंह में रखने से मुंह मीठा होता है ।
अनथक यात्री - वहती धर्म गंगा - आचार्य श्री पुनः बिहार हेतु कठिन परिपह सहते हुए सदैव की भांति पांव-प्यादे, ग्राम-ग्राम, नगर-नगर, डगर-डगर धर्मोपदेश देते हुए विचरण करते रहे। सं. १६६१ का चौगासा कपासन हुआ जहां उल्लेखनीय धर्माराधना के साथ कन्या विक्रय, मृत्यु-भोज, तिलक तथा भाई के विरुद्ध मुकदमेबाजी के त्याग भी भारी संख्या में हुए । धर्माराधन और समाज सुधार का भगीरथ अभियान साथ-साथ चलता रहा ।
अल्पारंभ-महारंभ – आपश्री का वि.सं. १६६२ का रतलाम चातुर्गास रूढ़ विचारों पर राचोट प्रहार और आध्यात्मिक नवजाग्रति के साथ धर्म की साहसिक नव व्याख्याओं के साथ स्मरणीय वन गया। हिंसा-अहिंसा या अल्पारंभ महारंभ के विषय में रूढ़ धारणा यह थी कि प्रत्यक्ष की अल्पहिंसा के समक्ष बड़ी से बड़ी अप्रत्यक्ष की हिंसा को नगण्य माना जाता था जिसके परिणाम से चर्खा कातने में प्रत्यक्षतः जो अल्पहिंसा थी उससे बचने के लिए मिल के चर्बी लगे वस्त्र पहनने को उचित माना जाता था, जिनमें पशुवध की महाहिंसा होती थी । किन्तु वह चूंकि अप्रत्यक्ष थी; अतः उसे गौण कर दिया जाता था । इस दिशा में आचार्यश्री ने स्वविवेकपूर्वक कार्य करने का उपदेश दिया। उनका स्पष्ट मत था कि स्व विवेक से महारंभ ( महापाप) के कार्य को भी अल्पारंभ (अल्पपाप) में बदला जा सकता है। उनकी इन नई व्याख्याओं का धीमा-धीगा विरोध भी हुआ किन्तु उससे विचलित न होकर आपने नए-नए उदाहरण देकर अपनी बात को सशक्त रीति से प्रस्तुत कर बदले दृष्टिकोण से आध्यात्मिक क्षेत्र में एक नव जागृति को जन्म दिया जिसका स्वावलंबन और स्वदेशी के क्षेत्र में महत्वपूर्ण परिणाम निकला ।
आदर्श मिलन - सौराष्ट्र की ओर विहार के समय मार्ग में आपश्री का मिलन आचार्य श्री हस्तीमलजी म.सा. से हुआ, जो परस्पर प्रेमपूर्ण एवं वात्सल्य का एक अनुपम आदर्श था । गेवाड़ और मालवा के छोटे-छोटे गांवों को स्पर्श करने के पश्चात् आपश्री ने पालनपुर, वीरमगांव और बढ़वाण तथा मार्गवर्ती गांव-करवों में धर्म का जयघोष गुंजाते हुए राजकोट में संवत् १६६३ का चातुर्मास किया। इस चौमासे में हिन्दू और मुसलमानों ने भी संयुक्त रूप से प्रवचनों का अमृतपान किया ।
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