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वार उचित समय देख कर उन्होंने अपने ताऊजी श्री धनराजजी के सगक्ष दीक्षा लेने का विचार रखकर आज्ञा मांगी। ताऊजी का जवाहर पर अत्यधिक स्नेह था। इस सूचना से वे हतप्रभ रह गए। वे जवाहर के विचारों की गहराई न जान सके और उन्होंने दीक्षा का विरोध करने का अपना निश्चय प्रकट किया। इस पर जवाहरलालजी ने अपने घर भोजन करना छोड़ दिया और एक-एक कर साधुजीवन की वातों को अपने जीवन तथा आचरण में घटित करना प्रारम्भ कर दिया। ताऊजी भरसक प्रयल करने लगे कि यह दीक्षा लेकर साधु न बनने पाये।
___एक वार जवाहरलालजी को ज्ञात हुआ कि उनके गुरुजी लींवड़ी गांव पधारे हुए हैं तब उन्होंने भरी दुपहरी में गांव से चुपचाप प्रस्थान किया और पहले से तय किए धोवी के घोड़े के सहारे लक्ष्य की ओर बढ़े। जव वे लींबड़ी पहुंचे तो उन्हें देखकर आश्चर्य हुआ कि उनके ताऊजी पहले ही वहां पहुंच चुके हैं। ताऊजी ने उन्हें बहुत समझाया किन्तु उनका निश्चय अटल था। उन्होंने कहा कि आप आज्ञा दे दें अन्यथा मैं साधुओं की तरह रह कर ही सारा जीवन विता दूंगा। ताऊजी निराश होकर थांदला लौटे और जवाहरलालजी ने लींबड़ी रहकर साधुवृत्ति से जीवन यापन प्रारम्भ कर दिया। आठ माह की तपस्या के बाद भी ताऊजी का मन नहीं पसीजा तव आपने अज्ञात स्थान पर जाने की धमकी दी; इससे ताऊजी का हृदय द्रवित हो उठा। उन्होंने यह सोच कर कि साधु बन जाने पर भी देखने को तो मिलेगा, उन्हें आज्ञा प्रदान कर दी।
भागवती दीक्षा-माघ सुदी २ संवत् १६४८ को लींवड़ी में आपथी ने भव्य भागवती दीक्षा ग्रहण की । आपश्री के केश लोच का कार्य मुनिश्री बड़े घासीलालजी म. ने किया और आप मुनि श्री मगनलालजी म.सा. के शिष्य बने । इस प्रकार उनके अटल संकल्प की विजय हुई।
गहरा आघात-जिन मुनि श्री मगनलालजी के आप शिष्य बने थे उनका माघ वदी २ को ही देहान्त हो गया, इससे मुनिश्री जवाहरलालजी म. को गहरा आघात लगा। कराल काल के इस क्रूर प्रहार से वे विचलित हो उठे और उनकी मानसिक दशा बिगड़ गई, तब श्री मोतीलालजी म.सा. ने आपकी बड़ी सेवा की। अन्त में पुनः स्वास्थ्य लाभ हुआ।
चरैवेति-चरैवेति-अव साधु जीवन की आपकी यात्रा जो प्रारम्भ हुई तो जीवन भर चलती रही। राजा भोज की पावन नगरी धार में चौमासा करके इन्दौर होकर आप उज्जैन पधारे। उज्जैन में आपने मालवी भाषा में प्रवचन देने प्रारंभ किए तो मातृभाषा की प्रवाहमयी पावन धारा में अवगाहन कर जन-जीवन कृतार्थ होने लगा। आपश्री जब रतलाम पधारे तो तत्र विराजित हुकम संघ के तृतीय आचार्यश्री उदयसागर जी म.सा. ने आशा प्रकट की कि 'जवाहरलालजी म.सा. के सुप्रभाव से जैन धर्म की महती प्रभावना होगी।' यह आशीष आपश्री को परम प्रोत्साहन रूप प्राप्त हुई।
प्रसंगवश कहना होगा कि इस आशीष के समय हुकम संघ के चौथे तथा पांचवें आचार्य क्रमशः श्री चौथमलजी म. व श्रीलालजी म.सा. उस समय मुनिवेश में उपस्थित थे तथा स्वयं जवाहरलालजी छठे आचार्य बने । इस प्रकार कालक्रम से बनने वाले चार आचार्यों का मिलन इस आशीष के समय हुआ था जो एक सुखद, विरल । घटना है। कालान्तर में श्री जवाहरलालजी म.सा. का यश जिस प्रकार दिदिगन्त में विस्तृत हुआ, उससे इस मंगल प्रसंग का महत्त्व स्पष्ट होता है।
___ आपश्री की प्रतिभा को पहचान कर आपको रामपुरा में सुश्रावक श्री केशरीमलजी के पास आगम-शास्त्रों के अध्ययन हेतु भेजा गया। आपश्री ने अल्पकाल में ही अपनी विलक्षण बुद्धि से दशवैकालिक, उत्तराध्ययन,