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'जहाँ परतन्त्रता है वहाँ अराजकता है, और जहाँ परतन्त्रता-जन्य हाहाकार मचा होता है वहाँ धर्म को मोन पठता है ? गुलाम और अत्याचार पीड़ित जनता में वास्तविक धर्म का विकास नहीं होता, इसलिये धार्मिक दिग्रस के लिये स्वातन्त्र्य अनिवार्य है...।
हम परमात्मा से प्रार्थना करते हैं कि उन्हें (श्री मनुभाई को) ऐसी सद्बुद्धि प्राप्त हो, जिससे वे सत्य के ! एच पर डटे रहें।..... सर मनुभाई मेहता को ऐसी शक्ति प्राप्त हो कि वे इंग्लैण्ड जाकर गोलमेज कान्फ्रेंस में अपने । सम्पूर्ण साहस का परिचय दें।'
राष्ट्र की स्वाधीनता के लिये सत्य, सत्याग्रह और असहयोग को धार्मिक एवं नैतिक आधार देकर पुष्ट किया। ‘सत्य एक ईश्वरीय शक्ति है जो विजयिनी हुये बिना नहीं रह सकती। चाहे सारा संसार पलट जाये। सत्य अटल रहेगा। सत्य को कोई बदल नहीं सकता। शास्त्रानुसार और अन्तरतर के संकेत के अनुसार जो सत्य है उसी शे विजयी बनाना बुद्धिमान का कर्तव्य है और सत्य की विजय में ही कल्याण है। मनुष्य को हर हालत में सत्य का पालन करना चाहिये। सत्य का पालन न करने के कार्य, चाहे वे कैसे भी हों, नाटक के सदृश हैं। सत्य के । बिना कभी कोई वस्तु टिक नहीं सकती।' । 'असत्य और अन्याय के प्रति मनुष्य का असहयोग करना आवश्यक है। उसी प्रकार लौकिक नीतिमय - व्यवहारों में अगर राज्य शासन की ओर से अन्याय मिलता हो तो ऐसी दशा में राज्य भक्तियुक्त सविनय । सहकार-असहयोग करना प्रजा का मुख्य धर्म है। राजा के भय से अपकारक कानून शिरोधार्य करना धर्म का
अपमान करना है। धर्मवीर पुरुष अपकारक कानून को ही नहीं ठुकराता, अपितु राजा या प्रजा के किसी भाग द्वारा । भी अगर ऐसा कानून बनाया गया हो तो उसे भी उखाड़ फेंकने की हिम्मत रखता है।'
____ 'सच्चा असहयोगी कभी व्यक्ति विशेष की अवज्ञा नहीं करता। असहयोगी अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर सहयोग करता है, अन्यायी को सहयोग न देना भी अन्याय के प्रतिकार के अनेक रूपों में से एक है। असहयोग प्रत्यक मनुष्य का न्यायसंगत अधिकार है; यदि उसकी सब शर्ते यथोचित रूप से पालन की जाये ?
'राजा अर्थात् देश की सुव्यवस्था का विरोध न करना, यह शास्त्र का आदेश है। मगर यदि राजा (पाय स राज्य व्यवस्था को दूषित करता हो तो उसके विरुद्ध आन्दोलन करना जैन-शास्त्रों के विरुद्ध नहीं है। जैन-शास्त्र ऐसे आन्दोलनों का निषेध नहीं करते !'
राष्ट्रभाव, स्वदेशाभिमान, स्वदेशी, श्रम और अन्त्यजोद्धार के द्वारा देशवासियों को स्वाधीनता के लिये का बनाने के आधारभूत रचनात्मक कार्यों को आचार्यश्री ने प्रेरित एवं पष्ट किया। राष्ट्र प्रेम और देश भक्ति
। दनदिन जीवन व व्यवहार से प्रमाणित होनी चाहिये। देश की संस्कृति, भाषा, वेश, भोजन वाज, रहन-सहन के प्रति आदर एवं गौरव, अंग्रेजी एवं विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और स्वदेशी के
व्यवहार को लौकिक धर्म के रूप में प्ररूपित कर लोकोत्तर धर्म के लिये आवश्यक एवं सहायक
गरिक के दैनंदिन जीवन व
-रवाज
सम्मान और व्यवहार को लौकिक धम
है उसे निश्चय कर लेना चा
या उद्धार है और विदशा
दिक उद्धार में अपना, समाज और धर्म का उद्धार है। इस सत्य को जो राष्ट्र सेवक स्वीकार करता प कर लेना चाहिये कि स्वदेशी वस्त्र स्वदेशी वस्त. का व्यवहार करने में स्वदेश का, समाज का और .भार विदेशी वस्तुओं के व्यवहार में स्वदेश, समाज और स्वधर्म का नाश समाया हुआ है।
हो जायेगा।
२. दाटकोण से विचार करोगे तो तुम्हारा निश्चय अधिक दृढ़ ह। रातो