________________
बाह्य लिंग मुक्ति का कारण नहीं है । कोई किसी भी वेश में हो, यदि विषयों से पूर्ण अनासक्त हो चुका हो, तो वह मुक्ति प्राप्त कर सकता है। जैसे अन्य लिंग सिद्धा व गृहलिंग सिद्धा का स्पष्ट उल्लेख जैन धर्म में किया गया है। वस्तुतः मोक्ष न होने का कारण विषयों में आसक्ति होना है । अतः जैन धर्म को सर्वथा निवृत्ति प्रधान बताना उचित नहीं है। जैन धर्म में अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति का विधान किया गया है। पांच आश्रव, अठारह पाप आदि से निवृति और पांच महाव्रत, पांच समिति, अनित्यादि बारह भावनाओं स्वाध्याय, ध्यान आदि में प्रवृत्ति का स्पष्ट विधान है। इस प्रकार से आचार्य प्रवर से जैन धर्म विषयक सूक्ष्म व गंभीर विवेचन सुनकर के लोकमान्य तिलक बड़े प्रभावित व प्रमोदित हुए ।
दीन-दुखियों के सहायक व रक्षक - आप मानवता के बड़े समर्थक व पुजारी थे। आप मानवता को धर्म की नींव मानते थे। आप फरमाते थे कि दया, प्रेम, दुखी की सहायता, परस्पर सहानुभूति, सहृदयता आदि मानवता के स्वाभाविक गुण हैं। जो मत या संप्रदाय इनके विरुद्ध प्रचार करे वह धर्म के नाम पर कलंक है। ऐसे मतों, पंथों को पूर्ण विरोध कर मिटा देना मानव का पुनीत कर्त्तव्य है । इस हेतु आपने प्रवचन, लेखन व तपादि साधना बल से मानवता का तथा जीवदया का भरपूर प्रचार-प्रसार किया था। आप कहते थे, 'जव दीनदुखी आपको प्यारे नहीं लगते, तो क्या दूसरों को मारने के लिए ईश्वर से बल की याचना करते हो ?' आप जीव दया की प्रवृत्तियों को सदा बल देते थे। एक बार बिहार में भयंकर भूकम्प आया जिससे हजारों व्यक्ति वेघरवार हो गए। आपने सुना तो करुणाद्र हो सभी संघों को आह्वान कर पीड़ितों को समुचित सहायता व राहत पहुँचाने के लिए प्रेरणा दी। जिससे हजारों रुपयों का चंदा एकत्रित कर सहायतार्थ भिजवाया गया ।
अनुशासन व आचारनिष्ठ — आप जहाँ दुःखी प्राणियों के दुखों को देख द्रवित हो जाते थे वहां दूसरी ओर आप कठोर अनुशासन व आचारनिष्ठ भी थे। धर्माचार्य को बीकानेरी मिश्री की उपमा दी गई है। जैसे मिश्री में मधुर व मीठी होती है और पानी में डाले तो पानी के साथ एकरूप हो जाती है किन्तु उसका प्रयोग प्रहार रूप करें तो सिर भी फोड़ सकती है। वैसे ही धर्माचार्य अनुशासनप्रिय आचारनिष्ठ शिष्यों के साथ मधुर व मिष्ट व्यवहार करते हैं, किन्तु अनुशासनहीन या आचार भ्रष्टों के साथ कठोर व्यवहार भी शासन हित में करने के लिए तत्पर रहते हैं। आचार्य प्रवर संघ में अनुशासन व आचारनिष्ठता बनी रहे, इसके लिए वे बड़े से बड़ा त्याग भी करने में संकोच * नहीं करते थे। एक बार पं. घासीलालजी म.सा. जैसे विद्वान एवं वरिष्ठ संत को भी पुनः पुनः भोलावना देने पर भी ब अनुशासन के प्रतिकूल प्रवृत्ति करते देखा और समाचारी में दोष लगाते सुधार नहीं किया तो, उन्हें दण्डित कर संघ से बाहर कर दिया था ।
प
१३०
O