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जैन संस्कृति के सजग प्रहरी
राजीव प्रचंडिया, एडवोकेट
इस वसुन्धरा में अध्यात्मधारा आरम्भ से ही प्रवहमान रही है। समय-समय पर आचरण- समता, तप-साधना तथा ज्ञान-आराधना के माध्यम से सन्त महात्माओं, ऋषि-मुनियों ने इस पवित्रधारा को जन मानस तक पहुँचाया है। भारत वर्ष सन्त प्रधान देश है। यहाँ की सन्त परम्परा अर्वाचीन नहीं है । सन्त परम्परा में जैन सन्तों और उनमें भी अध्यात्म योगी श्रीमद् जवाहराचार्यजी का योगदान सर्वविदित है। उन्होंने ज्ञान-विवेक तथा ध्यान योग के माध्यम से समाज में व्याप्त अज्ञानता को दूर कर ज्ञान - प्रकाश को चारों ओर फैलाया। उन्होंने सोते को जगाया, अवोध को जीने की एक नई दिशा दी, पीड़ितों को सुखशान्ति की राह बतायी और उद्बोधन दिया संसार को कपायों से वियुक्त-निसंग होने का । भगवन्तों की वाणी का सम्यक् पारायण तथा चिन्तन-मनन करते हुए उन्होंने सतत साधना से जो कुछ अनुभूत किया उसे ही अपने जीवन का अंग बनाया। उसी सत्य को कृतियों में निबद्ध भी किया जो वर्तमान के लिए ही नहीं, अपितु आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक सम्पुष्ट-सञ्जीवनी का कार्य करेगा।
आचार और विचार, जीवन आयाम को निर्धारित किया करते हैं। जैन संस्कृति का आचार पक्ष अहिंसा, सगता, सहिष्णुता तथा अपरिग्रह पर टिका है जबकि उसका विचार पक्ष अनेकान्त-स्याद्वाद दर्शन से अनुस्यूत है। जैन संस्कृति में प्रदीक्षित होने के कारण आचार्य श्री ने पहले अपने जीवन को अहिंसामय बनाया तदुपरान्त उन्होंने समाज को इस ओर प्रवृत्त होने के लिए उद्बोधित किया, जिसका व्यापक प्रभाव जन-साधारण पर पड़ा। यह एक प्रायोग सिद्ध बात है कि बड़े आदमी जैसा आचरण करते हैं, सामान्य लोग उसी का अनुसरण करते हैं, ‘यद्यदाचरति श्रेष्ठः लोकस्तदनुवर्तते।' आचार्यश्री का बड़प्पन इससे नहीं कि वे बड़े थे या किसी उच्च जाति-वर्ग-धर्म से सम्बन्धित थे अपितु उनका बड़प्पन इस बात से चरितार्थ होता है कि उन्होंने इस सत्य-तथ्य को पहिचाना कि ‘अप्पा सो परमप्पा' अर्थात् आत्मा ही परमात्मा है अर्थात् प्रत्येक मनुष्य में जो आत्मतत्त्व हे उत्तमें परमात्मा के बीज समाये हुए है। यदि वह अंकुरित हो जाए तो अनन्त आनन्द को अनुभूत किया जा सकता है। इसी उद्देश्य से अनुप्राणित होकर वे आत्म साधना की ओर अग्रसर हुए। सतत् साधना से उन्होंने इस रहस्य को जाना कि जो मैं हूँ वही दूसरा है और जो दूसरा है वही मैं हूँ। जीवों में परस्पर जो भेद भासता है उसका आधार अज्ञानता, मोह का आवरण। इस आवरण के हटते ही यह सूक्ति सार्थक हो जाती है 'जे एवं जागइ से स जापई।' इसी चिरन्तन सत्य को उन्होंने अपने पाद-बिहार के समय प्राणी मात्र को बताया कि निद्रा में बहुत सी लिये अब यत्किंचित् जाग जाओ, अंधविश्वासों, रूढ़ियों परम्पराओं से मुख मोड़ लो, मानव तन मिला है बनान से इसका सही-सही उपयोग कर, एक बार स्वयं देख लो ।
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