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आचार्य बनकर आपने अपने संघ को अनेक विधि समृद्ध किया, सम्पन्न किया । आपके तत्त्वावधान में अनेक दीक्षाएँ सम्पन्न हुई । आपके कुशल निर्देशन में श्रमण, संतों की इस सुदीर्घ परम्परा ने स्व-पर कल्याण हेतु अपनी जीवन-शाला में प्रयोग कर जीवंत उदाहरण प्रस्तुत किए। कथनी और करनी में इकसारता का उदाहरण प्रस्तुत कर सफल प्रयोक्ता की भूमिका का उदाहरण प्रस्तुत किया है ।
जैन संत सदा पद-यात्री होते हैं। यात्रा से जीवन में सातत्य जीने की शक्ति का संवर्द्धन होता है। यदि प्रवाह मंद और मंथर होने लगे तो उसमें अनेक प्रकार के प्रदूषण जन्म लेने लगते हैं। आपकी विरल विशेषता रही है कि आपने मात्र स्थूल प्रदूषण के परिहार की कोशिश नहीं की, अपितु वैचारिक प्रदूषण को शान्त और समाप्त करने का बेजोड़ प्रयास भी किया है। उनके इस प्रयास में भीतर और बाहर उत्पन्न होने वाले समग्र द्वेष और द्वन्द्व निर्मूल हो गए और उनके चरित्र चरण अनेकान्त धर्मी प्रमाणित हो उठे। आपने राजस्थान, मध्यप्रदेश तथा महाराष्ट्र आदि प्रान्तों की अनेक बार पद-यात्राएँ सम्पन्न कीं। अपने यात्रा - प्रवास में जनसाधारण को आपने संयम के संस्कार दिये थे ।
आगम के वातायन से जो अध्ययन और अनुशीलन कर मंथन किया गया, उसके फलस्वरूप सैद्धान्तिक विषयों का बार-बार अवर्तन, परावर्तन तथा प्रत्यावर्तन होता रहा । आपके द्वारा सतत चिन्तन, मनन और निघासन से संत समाज में ज्ञान के क्षेत्र में पर्याप्त प्रगति हुई । लोकजीवन इस सारस्वत परम्परा से अतिरिक्त लाभान्वि हुआ। समाज के विद्वानों को भी जैन दर्शन का सूक्ष्म ज्ञान और भेद - विज्ञान का अवबोध हुआ ।
आचार्यश्री के तत्त्वावधान में सूत्रकृतांग जैसे विशद और गम्भीर ग्रंथ का हिन्दी में सार्थ सम्पादन किया गया। इस सप्रयास से धार्मिक एवं विद्वत् समाज को तत्विषय का स्पष्ट बोध हो सका। बीकानेर जिलान्तर्गत भीनासर नामक नगर में एक जिन वाणी भण्डार की स्थापना की गयी जिसमें प्राचीन और अर्वाचीन शत-सहस्र ग्रंथों का संकलन किया गया। विद्या के क्षेत्र में इस ग्रंथागार की परम उपयोगिता है । आचार्य श्री के इस अद्वितीय कार्य को अमरता प्रदान करने के लिए भक्तों ने इस ग्रंथागार का नाम 'जवाहर पुस्तकालय' की संज्ञा प्रदान की।
अजमेर राजस्थान में एक श्रमण सम्मेलन आहूत किया गया, जिसमें स्थानकवासी संघों की एकता के लिए आचार्यश्री ने अपने श्रम और समय का यथेष्ट योगदान दिया था । इस प्रकार साहित्य, समाज और संस्कृति के क्षेत्र में आचार्य श्री का योगदान महत्त्वपूर्ण है । उनके द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का आज भी संचालन हो रहा है।
जैन संत धर्म और संस्कृति की प्रयोगशाला होते हैं । वे प्राणी कल्याणकारी धर्मतत्त्वों का स्वयं प्रयोग कर जीवन - आदर्श की स्थापना करते हैं। आचार्यश्री जवाहरलालजी जैन धर्म और दर्शन के सफल प्रयोक्ता थे । वे कथनी और करनी के सेतु थे । उन्होंने मनुष्य मात्र को खान-पान में शुद्धि और सात्त्विकता का निर्देश दिया था । . उनकी मान्यता रही है कि यदि मनुष्य का खान-पान स्वच्छ और शुद्धिपूर्वक है तो उसका प्रभाव विचारों पर पड़ा करता है। शास्त्र स्वाध्याय की अपनी उपयोगिता है उससे विचार और व्यक्ति सधा करते हैं किन्तु यदि कथनी प्रयोगवंत नहीं होगी तो जीवन में सदाचार का प्रवर्तन सम्भव नहीं ।
लगभग तीस वर्षों तक निर्बाध आचार्य पद का दायित्व निर्वाह करते हुए पूज्य श्री जवाहरलालजी 'आषाढ़ शुक्ला अष्टमी वि.सं. २००० में दिवंगत हो गए। आपके उपरान्त जैन संघ के आचार्य पद पर क्रमशः श्री गणेशीलालजी तथा आचार्य श्री नानालालजी म. सा. प्रतिष्ठित होकर उनकी परम्परा का प्रवर्तन कर रहे हैं। ऐसे महान् आचार्य की सेवा में शाब्दिक श्रद्धाञ्ञलियां अर्पित कर अपनी सादर शत - सहस्र वंदनाएं प्रस्तुत करता हूँ।
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