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देश राष्ट्र औ व्यक्ति-व्यक्ति में है संबंध पुराना; एक दूसरे पर अवलंबित है विकास का पाना। इसीलिए है उचित की जन-जन धर्म-नीति अपनाये अपने सुख से रहे; राष्ट्र को उन्नतिशील बनाये। इन्हीं परस्पर के संबंधों पर है जीवन निर्भर, यही जहाँ विच्छिन्न हुआ तो पड़ा भाग्य पर पत्थर। होकर के आचार्य-संत श्री रहे यही बतलाते; जन-जन के सात्त्विक विकास का मार्ग रहे दिखलाते।
हिंसा से आक्रान्न मनुज-या अब कल्याण नहीं है। इसीलिए हर अवसर पर थे जन-जन को समझाते; धर्म-भाव से भटके नर को सच्ची राह दिखाते। हर क्षण कहते थे जीवन में सदा स्वच्छता लाओ अहंकार-आडम्बर से हट निर्मल-गन बन जाओ। खद्दर के भी शुभ्र बल को वोले थे अपनाओ, स्वच्छ-सादगी जो इसमें है वैसा हदय बनाओ। जहाँ कहीं मालिन्य दीखता कहते दूर भगाओ: अन्तर को साधन से चमका शीशे सा चमकाओ।
भारत की संस्कृति जो दिन-दिन अब तक गिरती आई उसे देखकर उनके मन में