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अनजाने को जानना, जाने हुए की खोज करना और खोजे हुए को जीवन में उतारना, यह जीवनशुद्धि का मार्ग
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• प्रत्येक प्राणी को अपनी आत्मा के समान समझकर आत्मौपम्य भावना की उन्नति में ही मानव-समाज की सभी उन्नति है।
' विवाह का उद्देश्य चतुष्पद बनना नहीं, चतुर्भुज वनना है ।
दूसरे की सहायता में शक्ति खर्च करना, दूसरे के दुःख को अपना दुःख मानना और दूसरे के सुख को अपना सुख समझना, मनुष्य का आवश्यक कर्त्तव्य है । ईश्वर से प्रार्थना करो कि आपकी प्रकृति ऐसी बन जाय ।
सुवर्ती अन्याय का प्रतीकार करने के लिए कटिवद्ध रहता है । अन्याय का प्रतीकार करने में वह अपने प्राणों को हँसते-हँसते निछावर कर देता है । वह समाज और देश के चरणों में अपने जीवन का बलिदान देकर भी न्याय की रक्षा करता है ।
• जब तक गरीब आपको प्यारे नहीं लगेंगे तब तक आप ईश्वर को प्यारे नहीं लगेंगे।
• बालक तो अपने माता-पिता का उत्तराधिकारी है । न केवल उनकी धन दौलत का, मगर उनके सद्गुणों एवं दुर्गुणों का भी वह उत्तराधिकारी है। यह बात अगर मां-बाप की समझ में आ जाय तो बालक का बहुत कुछ भला हो सकता है।
• मातृ-प्रेम के समान संसार में और कोई प्रेम नहीं । मातृ-प्रेम संसार की सर्वोत्तम विभूति है, संसार का अमृत है । अतएव जब तक पुत्र गृहस्थ जीवन से पृथक् होकर साधु नहीं बना है, तब तक माता उसके लिए देवता है ।
चाहे नौकर रहो या मालिक बनो, जब तक पारस्परिक विश्वास की कमी रहेगी, काम नहीं चलेगा और पारस्परिक विश्वास दोनों की नीतिनिष्ठा से जनमता है ।
अन्त्यजों के प्रति दुर्व्यवहार करके आप धर्म का उल्लंघन करते हैं, मनुष्यता का अपमान करते हैं, देश और जाति को दुर्बल बनाते हैं, अपनी शक्ति को क्षीण करते हैं और अपनी ही आत्मा को गिराते हैं ।
• परिवर्तन में ही गति है, प्रगति है, विकास है, सिद्धि है। जहां परिवर्तन नहीं वहां प्रगति को अवकाश भी नहीं है। वहां एकान्त जड़ता है, स्थिरता है, शून्यता है। अतएव परिवर्तन जीवन है और स्थिरता मृत्यु है। परिवर्तन के आधार पर ही विश्व का अस्तित्व है ।
→ स्त्रियां जग जननी का अवतार हैं। इन्हीं की कूख से महावीर, बुद्ध, राम, कृष्ण आदि उत्पन्न हुए हैं । समाज पर स्त्री-समाज का बड़ा भारी उपकार है। उस उपकार को भूल जाना, उनके प्रति अत्याचार करने में लञ्जित न होना, घोर कृतघ्नता है ।
• न्यायोचित व्यापार करने वाला अपने धर्म पर स्थिर रहेगा और जो अन्याय करेगा वह अधर्म की सरिता में इदेगा |
तुम जिस देश में जन्मे हो, जहाँ के अन्न, जल और वायु से तुम्हारा पोषण हुआ है, उसी देश में उत्पन होने वाली वस्तुओं के अतिरिक्त दूसरी वस्तुओं का तुम्हें त्याग करना चाहिए।
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