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श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, आठवाँ भाग
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विषय "बोल भाग पृष्ठ प्रमाण स्थान तेईस साधु के उतरनेह२३ ६ १७० प्राचा श्रु.२चू १अ २उ २ योग्य तथा अयोग्य स्थान परिहरणोपघात ६६८ ३ २५६ ठा १०उ ३सू ७३८ १ स्थानातिग
३५७ १ ३७१ ठा ५उ १सू ३६६ स्थापन दोष
८६५ ५ १६२ प्रत्र द्वा ६७गा ५६५,ध अधि ३
प्रलो २२टी पृ३८,पि नि गा ६२,
पि विगा ३, पचा १३ गा५ स्थापना अनन्तक ४१७ १ ४४१ ठा ५उ ३सू.४६२ स्थापना कर्म ७६० ३ ४४१ प्राचा भ २उ १ निगा १८३ स्थापना दोष ३४७ १३५६ प्राव ह अ ३नि गा ११०७ पृ.
५१७,प्रवद्धा २ गा १०६ म्थापना निक्षेप
२०६ १ १८७ अनु स १५०,न्यायप्र श्रध्या ६ स्थापनानुपूर्वी ७१७ ३ ३६० अनु सू ७१ स्थापनानुयोग ५२६ २ २६,२ विशे गा १३९० स्थापनाप्रमाणनामके भेद७१६ ३ ४०० अनुसू १३० गा ८५ . स्थापनार्य
७८५ ४ २६६ वृ उ पनि गा ३२६३ २ स्थापना सत्य ६९८ ३ ३६६ ठा १०सू ७४१,पन्न प ११ स
१६५,ध भधि ३श्लो ४११ १२१ स्थापिता यारोपणा ३२६ १ ३३५ ठा ५उ २ सू ४३३ स्थावर
८ १५ ठा २उ ४ सू १०१ स्थावरकाय पाँच
४१२ १ ४३७ टा ५उ १सू ३६३
१ अतिशय रूप से स्थान अर्थात् कायोत्सर्ग करने वाला साधु ।
२ सदृश या विसदृश प्राकार वाली वस्तु में किपी की स्थापना करके उसे उस नाम से कहना स्थापना सत्य है । जैसे शतरज के मोहरों को हाथी घोड़ा श्रादि कहना अथवा 'क' इस प्राकार विशेष को 'क' कहना।