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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, आठवाँ भाग
बोल भाग पृष्ठ
प्रमाण
६८४ ३ २६२ भश २३५सू १०७
विषय लक्षण दस श्रावक के १ लक्षण दोष
८५२५
लक्षण पन्द्रह विनीत के लक्षण संवत्सर की व्याख्या ४०० १
७२२ ३ ४०८ ठा १०३ सू७४३
१२५
४२७
लज्जादान
लब्धि दस
लब्धि पुलाक
२७१
उत्तम ११गा १०-१३
टा५ उ ३ सू४६०, प्रथ द्वा
१४२ मा ६०१
और उसके पाँच भेद लक्षण सत्रह श्रावक के ८८३५३६२ ध अधि २ श्लो. २२टी १४६ लक्षणाभास की व्याख्या १२० १ ८४
न्यायदी. प्रका १
३५६ १३७३
और भेद २ लगण्डशायी लघुसर्वतोभद्रतपयंत्रसहित ६८६ ३ ३४५ लघुसिंह क्रीड़ातपयंत्रसहित ६८६ ३ ३४१ लघुसिंह निष्क्रीड़ित तप ६८६ ३ ३४१
७६८ ३ ४५१
६५८ ३ २३०
३६६ १३८०
टा ५३ १ सू ३६६
व ८.६ व ३
अंत व ८.३
ठा १०३ ३७४५ भरा ८२ सू ३२० ट ५ ३४४५, भरा. २५ उ ६ सू७५१ टी.
लब्धि प्रत्यय वैक्रिय शरीर३८६ १४१३ पद्म प २१स् २६७,टा उ १
सू. ३६५,कर्म भा१गा ३३ तत्त्वार्थ श्रध्या २ १८
लब्धि भावेन्द्रिय
लब्धि मद लब्धियाँ अठाईस
लगन पुण्य
१ बाद का एक दोष, इसक सव्याप्ति, प्रतिव्याप्ति और असम्भव तीन भेद हैं ।
२ दुसस्थित या बाकी लकडी की तरह कुबड़ा होकर मस्तक भौर कोहनी को जमीन
पर लगाते हुए एवं पीठ से जमीन को स्पर्श न करते हुए सोने वाला साधु ।
२५ ११७ ७०३ ३ ३७४ ठा १० सू ७१०, लासू ६० ६ ६५४ ६ २८६ प्रत्र द्वा २७० मा १४६२-१५०८
६२७ ३ १७२ ठाउ ३ सू. ६७६