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जैन गौरव-स्मृतियां ★ाट
गया है । जैनधर्म में जन्म से किसी वर्ग या वर्ण का प्राधान्य नहीं माना गया है । वह तो गुणकर्म के अनुसार श्रेष्ठत्व और कनिष्ठत्व मानता है। इसलिए धार्मिक क्षेत्रों में वह प्राणीमात्र को समान अधिकार प्रदान करता है। किसी भी वर्ण का व्यक्ति, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष अपने सद्गुणों के
कारण उच्च पद को प्राप्त कर सकता है । ब्राह्मण धर्म में जाति वाद की प्रधानता · है जब कि जैन धर्म में गुणपूजा की प्रधानता । . .....
जैन और ब्राह्मण परम्परा के तत्व ज्ञान में भी गहरा मौलिक भेद है। ब्राह्मण परम्परा में सांख्य योग मीमांसक आदि को छोड़ कर ईश्वर को जगत् का कर्ता और संहर्ता माना जाता है । जैन परम्परा में ईश्वर को जगनियता-कर्ता हर्ता नहीं माना गया है । जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक प्राणि अपनी सृष्टि का आप ही कर्ता है । जैन दृष्टि के अनुसार प्रत्येक आत्मा में ईश्वर भाव रहा हुआ है । जो आत्मा अपने पुरुषार्थ के द्वारा कर्म के आवरण को दूर कर के अपने परमात्म भाव को प्रकट कर सकता है । जैन धर्म ईश्वर को शुद्ध जीवात्मा से अलग नहीं मानता है। प्रत्येक व्यक्ति ईश्वरत्वं प्राप्त कर सकता है और सब मुक्तात्मा समान रूप से ईश्वर हैं। मुक्तात्मा ही ईश्वर है अतएव वह सृष्टि के सृजन और संहार के प्रपञ्च से अर्तीत है। यह जैनधर्म की मान्यता है। जब कि ब्राह्मण परम्परा में मुक्तात्मा के
अतिरिक्त ईश्वर की स्वतंत्र मान्यता है । और वह कर्तासंहर्ता माना गया है । - जैन धर्म के अनुसार यह जगत-प्रवाह अनादि अनन्त है । इसम उत्सर्पण
अवसर्पण होता रहता है परन्तु यह निमूल नष्ट नहीं होता. और नवीन पैदा
नहीं होता । ब्राह्मण परम्परा में प्रलय के समय सृष्टि का प्रलय हो जाना __ और पुनः ईश्वर के द्वारा नई सृष्टि का सृजन करने का सिद्धान्त माना गया है।
. इन दोनों धर्मों में आत्मा और कर्म के सम्बन्ध में भी मान्यता का भेद है । वह दार्शनिक चर्चा है अतः तत्वज्ञान के प्रकरण में उसका विशेष वर्णन किया जायगा । यहां तो इतना ही कहना पर्याप्त है कि जैन धर्म आत्मा को प्रति व्यक्ति सिन्न, कर्ता, भोक्ता, प्रणामी नित्य और देह व्यापी मानता है । ब्राह्मण परम्परा में इस विषय में सिन्न भिन्न मत हैं । सांख्य-योग्य, न्याय, . वैशेषिक और अद्वैतवादी परम्पराएँ इस विषय में अलग-अलग अभिप्राय व्यक्त करती हैं । न्याय वैशेषिक परम्परा आत्मा के कत्व को और उसके