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जैन गौरव स्मृतियां ★
'ठीक-ठीक बना रहा। इस तरह. मगध की राजपरम्परा में भगवान् महावीर को धर्मः दीर्घ काल तक चलता रहा ।
पंचयाम धर्म और संघ-व्यवस्था
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'भगवान् महावीर ने केवल ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् तीर्थ की स्थापना की। अपने उपदेशों के प्रभाव से उनके तीर्थ में साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकाओं की उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई । यह पहले कहा जा चुका है कि तेवीसवें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ स्वामी ने चतुर्याममय" धर्म का उपदेश दिया था। उस समय स्त्री को भी परिग्रह रूप समझा जाता था अतः अपरिग्रह व्रत में ब्रह्मचर्य व्रत का भी समावेश कर लिया जाता था । भगवान पार्श्वनाथ ने अपने संघ के साधुओं के लिए ब्रह्मचर्य पालन की आज्ञा दी थी परन्तु उसे अलग व्रत न मान कर अपरिग्रह व्रत में ही सम्मि लित कर लिया था परन्तु धीरे-धीरे परिग्रह का अर्थ संकुचित होता गया अब परिग्रह से धन, धान्य, जमीन आदि ही समझे जाने लगे। धीरे-धीरे मानव-प्रकृति में वक्रता और जड़ता बढ़ने लगी इस लिए स्पष्ट रूप से ब्रह्मचर्य, को अलग व्रत के रूप में स्थान देने की आवश्यकता प्रतीत हुई। "भगवान् महावीर के समय में कई दाम्भिक परिव्राजक ऐसा भी प्रतिपादन करने लगे थे कि स्त्री-सेवन में कोई दोष नहीं है । इस तरह की परिस्थिति में भगवान् महावीर ने चतुर्याम धर्म के स्थान में पञ्चयाम मय धर्म का उपदेश दिया
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भगवान महावीर ने नवीन सम्प्रदाय या मत की स्थापना नहीं की । उन्होंने भगवान् पार्श्वनाथं के शासन में जो विकारी तत्त्व प्रविष्ट हो गये थे : उन्हें दूर कर उसका संशोधन किया । भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान् . महावीर के सिद्धान्तों और तत्वज्ञान में कोई भेद नहीं है । केवल वाह्य आचार में परिस्थिति के अनुसार थोड़ा भेद किया गया है। पार्श्वनाथ के साधु-साध्वी विविध वर्ण के वस्त्र रख सकते थे जब कि भगवान् महावीर ने अपने साधु-साध्वियों के लिए श्वेत वस्त्र रखने की ही आज्ञा प्रदान की । सचेल अचेल का यह भेद उत्तराध्ययन सूत्र के केशि- गौतम संवाद से प्रकट होता है । चतुर्यामः पञ्चयाम और सचेल अचेल के भेद से ही भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान् महावीर की परम्परा में नगण्यसा भेद था । इसके 4. अतिरिक्त और कोई महत्वपूर्ण भेद नहीं था, इसलिए ये दोनों परम्पराएँ
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