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जैन-गौरव स्मृतियां ashtra
- पट्ट में होने से अब यह प्रमाणित हो गया है कि बौद्धस्तूपों के बनने के कई
शताब्दी पूर्व जैनस्तूपों का निर्माण हो चुका था । बुल्हर स्मिथ आदि पाश्चात्य विद्वानों ने भी यह स्वीकार कर लिया है । यहाँ कतिपय प्रसिद्ध स्तूपों का दिग्दर्शन कराया जाता है:(१) मथुरा का देवनिर्मित वोद्व स्तूप :___सन् १८६० में लखनऊ संग्रहालय के क्यूरेटर डॉ. फ्यूहरर को मथुरा के प्रसिद्ध कंकाली टीले की खुदाई करवाते समयं जैनकला की विविध वस्तुओं के साथ एक अभिलिखित शिलापट्ट प्राप्त हुआ । यद्यपि दुर्भाग्य से यह शिलापट्ट भग्नावस्था में मिला है तथापि जो अंश प्राप्त हुआ है वह सारे भारत में जैनधर्म एवं कला की प्राचीनता सिद्ध करने के लिए महत्त्वपूर्ण अवशेप है । इस शिलाखण्ड पर ब्राह्मी लिपि में एक अभिलेख उत्कीर्ण है जिससे पता चलता है कि शक संवत् ७६ ( = १५७ ई.) में भगवान् अर्हत्
की प्रतिमा देवताओं के द्वारा निर्मित 'वोद्ध' नामक स्तूप में प्रतिष्ठापित की . गई। यह स्तूप मथुरा के दक्षिण पश्चिम में वर्तमान में कंकाली नामक टीले पर वर्तमान था । ईसा की द्वितीय शताब्दी में इस स्तूपं का आकार प्रकार ऐसा भव्य तथा उसकी कला इतनी अनुपम थी कि मथुरा के इस स्वर्णकाल के कलामर्मज्ञों को भी उसे देखकर चकित हो जाना पड़ा था। उन्होंने अनुमान किया कि यह स्तूप संसार के किसी प्राणी की कृति न होकर देवों की रचना होगी । अतः उन्होंने इसे 'देवनिर्मित स्तूप' की संज्ञा दी।
व्यवहार भाग्य और विविध तीर्थकल्प में इस देवनिर्मित स्तूंप के विषय में अनुवतियां मिलती हैं । तीर्थकल्प में लिखा गया है कि "यह लूप पहले स्वर्ण का था और उस पर अनेक मूल्यवान पत्थर जड़े हुए थे। इस स्तूप को कुवेरा देवी ने सातवें तीर्थकर सुपार्श्वनाथ के सम्मान में स्थापित किया
। तेइसवें जिनपार्श्वनाथ के समय में इस स्वर्ण स्तूप को चारों ओर ईटों से श्रावेष्टित किया गया और उसके बाहर एक पापारण मन्दिर का निर्माण किया गया। "तीर्थकल्प से यह भी पता चलता है कि महावीर की ज्ञान-प्राप्ति के १३०० वर्ष बाद मथुरा के इस स्तूप की मरम्मत चप्पभट्टसूरि ने करवाई।" दसवीं ग्यारहवीं सदी के लेखों से पता चलता है कि कम से कम १०७७ ई० में कंकाली टीले पर जैनस्तूप तथा मन्दिर बने हुए थे।