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★ जैन - गौरव -स्मृतियां
इस प्रकार प्रथम वाचना के समय चार पूर्वन्यून पर १२ अंग व्यवस्थित किये जाकर श्रम संघ में प्रचारित किये गये । इस समय से अब संघ में. दशपूर्वर ही रह गये । इस दशपूर्वी-परम्परा का अन्त आचार्य वज्र के साथ हुआ। आचार्य वज्र का स्वर्गारोहण विक्रम सं० ११४ ( वीरात्५८४) में हुआ । दिगम्बर परम्परा के अनुसार दशपूर्वी का विच्छेद आचार्य धर्मसेन के साथ वीरात् ३४५ में हुआ । आचार्य वज्र के बाद आर्यरक्षित हुए । इन्होंने अनुयोगों का विभाग कर दिया । कालक्रम से श्रुतज्ञान का ह्रास होता गया । आरक्षित भी सम्पूर्ण नौ पूर्व और दशम पूर्व के २४ यविक मात्र के अभ्यासी थे । आर्यरक्षित भी अपना पूरा ज्ञान दूसरे को न दे सके । उनके शिष्यसमुदाय में से केवल दुर्बलिका पुष्पमित्र ही सम्पर्ण नौ पूर्व पढ़ने में समर्थ हुआ किन्तु अभ्यास न करने कारण नवमपूर्व को वह भूल गया । इस प्रकार उत्तरोत्तर पूर्वगत ज्ञान का ह्रास होता गया और वीर निर्वाण के एक हजार वर्ष बाद ऐसी स्थिती हो गई कि एक पूर्व का ज्ञाता भी कोई न रहा । दिगम्बरों की मान्यतानुसार वीर निर्वाण सं० ६८३ में ही पूर्व ज्ञान का विच्छेद हो गया ।
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माधुरी वाचनाः
प्रथम वाचना के बाद भी आगमों के अस्तव्यस्त होने के प्रसंग आते ही रहे । वीरात् २६१ में सम्प्रति राजा के समय भी दुष्काल हुआ। इसके बाद वीरात् नौवीं शताब्दी में स्कन्दिलाचार्य के समय में पुनः बारह वर्ष : का अति भयंकर दुर्भिक्ष हुआ । इससे पूर्व सूत्रार्थ का ग्रहण और पठित का : पुनरावर्तन प्रायः अत्यन्त दुष्कर हो गया । बहुत सा अतिशययुक्त श्रुत भी विनम्र हो गया । तथा अंग उपाङ्ग आदि का भी परावर्तन न होने से भावतः विनष्ट हो गया । दुर्भिक्ष के बाद मथुरा में स्कान्दिलाचार्य के सभापतित्व में वीर निर्वाण सं० ८२७ से ८४० के बीच श्रमरणसंव एकत्रित हुआ और जिसे जो याद था वह कहा । इस प्रकार कालिक श्रुत और पूर्व गतश्रुत को अनुसन्धान द्वारा व्यवस्थित करलिया गया । मथुरा में यह संघटना हुई अतः यह माथुरी वाचना कही जाती है । स्कान्दिलाचार्य के युगध से यह स्कान्दिलाचार्य का अनुयोग कहा जाता है।
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