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जैन-गौरव स्मृतियाँ
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नाम चढ़ा हुआ है। संसार के अणु-अणु पर इस वीरप्रताप के महान प्रताप की छाप अंकित है। इस महान क्षत्रियविभूति ने वनवन की खाक छानी, पर्वतों और गुफा में निवास किया, ऐश-आराम और राज्य-पाट को तृण की तरह तुच्छ समझकर छोड़ किया, परन्तु कभी किसी की अधीनता स्वीकार न की । आपत्तियों के भयंकर झंझावातों में यह वीर महायोद्धा हिमाचल की तरह अडोल रहा । ऐसे महान् दृढ स्वाभिमानीराणा प्रताप के जीवन में भी एक बार ऐसी घटना घटी जिसने राणा जी के लौहहृदय को भी कँपा दिया। इस अवस्था में उनके दिल में मुगलों से समझौता करलेने का विचार हठात् हो आया; पर धन्य हैं उनके मंत्री भामाशाह जिन्होंने ऐसे अवसर पर महाराणा प्रताप के गौरव की रक्षा और उनके उज्ज्वल चरित्र में कालिमा. का जरा भी दाग न लगने दिया। . .
जिस समय राणा प्रताप मेवाड़ की राज्यगादी पर आरूढ हुए उस समय अकबर जैसे कूटनीतिज्ञ मुगल सम्राट का भारत पर पूरा २ आधिपत्य हो चुका था । अकबर की कुटिल-नीति ने सन्धि के बहाने प्रायः सब राजपूत राजाओं को अपनी ओर कर लिया था । कई राजपूत नरेशों ने अपनी बहनें और कन्याओं का विवाह भी मुगलों - यवनों के साथ कर दिया था। यहीं तक नहीं इन गौरवहीन क्षत्रियों ने स्वाभिमानी राणा प्रताप को भी भ्रष्ट करने के कई प्रयत्न किये । एक वार अकबर के साथ अपनी बहन का व्याह करने वाले अम्वेर (जयपुर) के राजा मानसिंह अतिथि के रूप में राणाजी के यहाँ आये । महाराणा ने उनका यथोचित सत्कार किया किन्तु भोजन के समय उनके साथ ही नहीं, उनके पास तक बैठने में इस स्वाभिमानी ने अपना. नैतिक पतन समझा । मानसिंह ने इसे अपना अपमान समझा और उसने राणा जी से बदला लेने का संकल्प किया।
राजा मानसिंह इस समय अकबर का सबसे अधिक माननीय कर्मचारी था। उसने अकबर को राणाजी के विरूद्ध उकसाया । अकवर तो इस ताक में था हो। वह राणाजी के राज्य को छीनना नहीं चाहता था; उसकी एक मात्र प्रबल इच्छा थी कि राणा प्रताप एक बार मुझे वादशाह शब्द से सम्बोधित करदें और अपना मस्तक मुकादें । अकबर की यह मनोकामना पूर्ण नहीं हो रही थी। अतः इस अवसर से लाभ उठाकर उसने IRATRIKIMERIMENT: (३५EJARKOKRAKRIYANA