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जैन - गौरव - स्मृतियाँ
तेजपाल ने महीतट के . घुघुल नामक राजा के साथ युद्ध करके उसे वीरधवल की आज्ञा में उपस्थित किया था ।
कच्छ के भद्रेश्वर का राजा भीमसिंह जब आक्रमण करने आया तब इन दोनों भाइयों ने उसके साथ डटकर लोहा लिया । अन्ततः सन्धि हो गई । इस प्रकार इन महामात्यों ने यह सिद्ध कर दिया कि "क्षत्रिय ही युद्ध कर सकते हैं वणिक् नहीं यह केवल भ्रम है" ।
ये दोनों बन्धु विपुल धनराशि के स्वामी थे । उन्होंने इस द्रव्यराशि को मुक्तहस्त से धार्मिक और सार्वजनिक सुकृत्यों में लगाया। आचार्य जिनविजय जी ने लिखा है कि:
“पूर्वकालीन जैन जितने धर्मप्रिय थे उतने ह राष्ट्रभक्त भी थे और और जितने राष्ट्रभक्त थे उतने ही प्रजावत्सल भी थे। उनकी विपुल लक्ष्मी का लाभ धर्म, राष्ट्र और प्रजागरण समान रूप से लेते थे । वे साधर्मिक वात्सल्य भी करते थे और प्रजा को भी प्रीतिभोज देते थे । वे जैन मन्दिर भी. बंधवाते थे और सार्वजनिक स्थान भी । वे जैनमुनियों का जिस भावना से सम्मानित करते थे उसी भावना से ब्राह्मण विद्वानों का भी आदर करते थे । शत्रु जय और गिरनार की यात्रा के साथ वे सोमनाथ की यात्रा भी करते थे और द्वारका भी जाते ।"
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मध्ययुग के इतिहासकाल में जितने भी समर्थ श्रावक हो गये हैं उन सब में वस्तुपाल सबसे महान था । उसने जैनधर्मस्थानों के अलावा लाखां रूपये जैनेतर धर्मस्थानों के लिये खर्च किये थे । सोमेश्वर, भृगुक्षेत्र शुक्ततीर्थ, वैद्यनाथ, द्वारिका, काशी, विश्वनाथ, प्रयाग और गोदावरी आदि अनेक हिन्दू तीर्थस्थानों की पूजा आदि के लिये लाखों का दान किया था। सैकड़ों ब्रह्मशालाएँ और ब्रह्मपुरियाँ बनवाई थीं, अनेक सरोवरों और विद्यामठों का का निर्माण किया था, अनेक ग्रामों के चारों ओर चारदिवारी बनवाई थी, सैकड़ों शिवालयों का निर्माण किया था । सहस्त्रों वेदपाठी ब्राह्मणों को वार्षिक अजीविका बाँध दी थी, मुसलमानों के लिये अनेक मस्जिदें भी वनवादी थीं । उसने हजारों रूपये खर्च करके गुज़रांत की शिल्पकला के सुन्दरतम नमूने के रूप में एक उत्कृष्ट खुदाई के काम का आरसपत्थर का
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