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* जैन-गौरव-स्मृतियां A
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संवत् १२१६ के मार्गशीर्ष शुक्ला द्वितीया को प्रकट रूप से जैनधर्म की गृहस्थ-दीक्षा स्वीकार की। उसने अपने राज्य में दया का व्यापक प्रचार किया।
द्वयाश्रय ... ... .. आचार्य हेमचन्द्र ने अपने द्वयाश्रय महाकाव्य में उल्लेख किया है कि "राजा कुमारपाल अपनी प्रजा के सुख दुःख जानने के लिये वेश बदल कर नगर में पर्यटन करता था। एक दिन उसने एक मनुष्य को ५-७. बकरे कसाई के यहाँ ले जाते हुए देखा । इससे उनके दिल में विचार आया कि मैं प्रजापति कहलाता हूँ, यदि मैं इसके लिये कुछ न करूं तो मुझे धिक्कार है"। उसने राजभवन आकर आत्रापन्न निकाला--"जो मैं ठी प्रतिज्ञा करेगा उसको दंड मिलेगा, जो परस्त्री लम्पट होगा उसे विशेष दंड मिलेगा और जो जीव हिंसा करेगा उसे सबसे अधिक कठोर दंड मिलेगा" । इस आज्ञापन को उसने अपने सारे राज्य में पालन करने के लिए भिजवाया।
प्रो० मणिलाल नभुभाई द्विवेदी ने लिखा है कि "कुमारपाल की अमारिघोषणा से यज्ञयाग में भी मांस वलिदान रुक गया और अन्न का हवन प्रारम्भ हो गया। लोगों के जीवन में दया का विकास हुआ और मांस भोजन इतना निषिद्ध हो गया कि सारे हिन्दुस्थान में एक या दूसरी रीति से केवल थोड़े से हिन्दु ही मांस का प्रयोग करते हैं किन्तु गुजरात में तो उसकी गंध भी सहन नहीं की जा सकती है।
कुमारपाल का जीवन, जैनधर्म स्वीकार करने के बाद धर्मपरायण जीवन हो गया था। अपने जीवन की प्रारम्भिक अवस्था में उसने जो बत्तीस दाँतो के द्वारा मांसभक्षण किया था उसके प्रायश्चित्त के रूप में उसने बत्तीस भव्य जिनमंदिर बनवाकर पाप-शोधन किया । उसने साथ वार शत्रुजय-गिरनार आदि जैनतीर्थों की यात्रा की थी। जहाँ जीर्ण मन्दिर थे उनका उद्धार कराया । कहा जाता है कि १६०० जीर्णोद्धार और १४४४ नये जिनमन्दिरों पर कलश चढ़ाये थे।
उसने सबसे प्रथम पाटन में 'कुमार विहार' नामक २४ जिन का मन्दिर बँधवाया। तदनन्तर अपने मिता त्रिभुवनपाल के स्मरणार्थ 'त्रिभुवन विहार' kkkkkkkke (३३८) Kokakankikkkkk