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जैन-गौरव-स्मृतियां★STS
र कलिङ्ग चक्रवर्ती महाराजा खारवेल जैनधर्मानुयायी थे यह तो प्रायः सर्वमान्य बात है। उड़ीसा में खण्डगिरि की हाथीगुफा में से महाराजा खारवेल का उत्कीर्ण कराया हुआ शिलालेख प्राप्त हुआ है । इस लेख का आरम्भ इस प्रकार हुआ है :- नमो अरहंतानं [1] नमो सव सिधानं [1] ऐरेन महाराजेन महामेघवाहनेन चेतिराजवसवधनेन पसथ सुभ लखणेन चतुरन्त लुठित गुनोपहितेन कलिंगाधिपतिना सिरि खारवेलेन ।
इस लेख का अत्यधिक ऐतिहासिकमहत्व है । ऐतिहासिक घटनामों और जीवन चरित्र का पूरा वर्णन प्रकट करने वाला भारतवर्ष का यह सवप्रथम शिलालेख है । इस शिलालेख में दी हुई घटनाओं से यह निस्संदेह सिद्ध हो जाता है कि सम्राट् खारवेल स्वयं जैनधर्मानुयायी और जैनधर्म प्रचारक थे तथा इनके पहले भी कलिङ्ग में जैनधर्म का प्रचार था । अशोक . के आक्रमण के कारण कलिङ्ग तहस-नहस होगया था, नगर विरान हो गये थे, असंख्य कलिंगवासी युद्ध के मैदान में काम आगये थे, कई बन्दी बना लिये गये थे; धर्मध्यान करने वाले साधुगण भी हैरान होगये थे। यह बात अशोक के शिलालेख से भी प्रकाट होती है और इस लेख से भी प्रकट होती है। इस दुर्दशाग्रस्त कलिंग का पुनरुद्धार खारवेल ने किया । उसने कलिंग के फीके पड़े हुए ऐश्वर्य को पुनः चमकाया । उसने कई उपाश्रय बनवाये। भव्य मन्दिरों का निर्माण कराया और प्राचीन मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाया।
खारवेल केवल धार्मिक ही नहीं थे अपितु शौर्य की अप्रतिम मूर्ति भी थे। वह पच्चीस वर्प की युवावस्था में सम्राट बने थे। उनमें अद्वितीय पौरुष
और उत्साह , अतः उन्होंने कई देशों पर विजय प्राप्त की। देश-विदेश में उनके विजय-गौरव से दिशाएँ गूंज उठी। वह आन्ध्र महाराष्ट्र और विक को अपनी छत्रछाया में लाये। उस समय के प्रसिद्ध राजा दक्षिणेश्वर शातकर्णि को युद्ध में परास्त कर अपना लोहा जमाया। जिस मगध राज्य में कलिंग को निस्तेज बना दिया था उसके विरुद्ध उन्होंने युद्ध घोपित कर दिया। खारवेल के प्रताप से घबराकर मगधराज मगध को छोड़ कर मथराकी तरफ भाग गये । खारवेल ने मगध के गंगाजल में अपने हाथियों को कराया, उनकी तृपा शान्त की । नन्दिवर्धन भगवान् ऋषभदेव की मति