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* जैन-गौरव-स्मृतियां
अमूल्य निधियों से वञ्चित होना पड़ा है। यदि जैनविद्वान और श्रीमान् अन्वेषण की प्रवृत्ति पर पूरा २ ध्यान दें, तो वे संसार को ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और साहित्यिक वातों पर नवीनप्रकाश प्रदान करने में समर्थ हो सकते हैं।
सम्राट अशोक का पुत्र कुणाल अन्ध होने से उसका (कुणाल ) पुत्र सम्प्रति शासक बना। इस समय आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ति दो प्राचार्य
हुए। आर्य महागिरि ने जिनकल्पं अंगीकार किया और सम्राट् सम्प्रति वे संघ से अलिप्त रहे । आर्य सुस्ति ने स्थविरकल्प एंगी
कार किया और इस सम्राट् सम्प्रति को प्रतिबोध दिया । सम्राट् सम्प्रति अत्यन्त प्रभावशाली और-धर्म प्रभावक नरेश थे । इनके विषय में यह कहाजाता है कि सवालाख नवीन जिनालय बनाये, तेरह हजार जीर्ण मन्दिरों का उद्धार किया और सात सौ दानशालाएँ स्थापित्त की । सम्राट् सम्प्रति ने धर्मप्रचार के लिए पानार्य देशों में भी धर्मोपदेशक भेजे थे। इस महान् धर्मप्रचारक सम्राट ने ऊँच-नीच-सबको जैनधर्मानुयायी बनाये थे। अरब, ईरान आदि विदेशों में भी इसने जैनधर्म का प्रचार किया था। जिनालय बनाने और प्रचार करने के अदम्यउत्साह के लिए इस सम्राट की अत्यन्त ख्याति है। सम्राट् सम्प्रति ने उज्जयिनी को अपनी राजधानी बनाया । उस समय उज्जयिनी जैनों का मुख्य केन्द्रस्थान बन गया था। सम्राट् सम्प्रति का उल्लेख बौद्धों के दिव्यावदान नाम के अन्य में आता है । प्रसिद्ध पुरातत्त्वज्ञ गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने अपने राजस्थान के इतिहास (प्रथम भाग) के पृष्ठ ६४ पर लिखा है:
. . 'इस पर से अनुमान होता है कि मौर्य देश कुणाल के दो पुन दशरथ और सम्प्रति में विभक्त हो गया हो। पूर्वविभाग दशरथ के और पश्चिमी विभाग सम्प्रति के अधिकार में रहा हो । सम्प्रति की राजधानी कहीं पाटलिपुत्र और कहीं उज्जैन लिखी हुई मिलती है। परन्तु यह माना जासकता है कि राजपूताना, मालवा. गुजरात और काठियावाड-इन देशों पर सम्प्रति का राज्य रहा होगा और उसने अपने समय में अनेक जनमन्दिरों का निर्माण कराया होगा। तीर्थकल्प में यह भी लिखा है कि पर. माईन मन्नति ने अनार्य देशों में भी विहार. (मन्दिर) बनवाये थे।" .