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* जैन-गौरव-मृतियाँ
संरक्षण करते हैं। जैसे माता-पिता संतान का पालन करते हैं और उसका संरक्षण करते हैं इसी तरह श्रावक जन भी साधुजनों के संयम-पालन में सहायक और संरक्षक होते हैं। इसलिए एक ओर जहाँ साधुजन श्रावकों के के गुरू हैं वहीं दूसरी ओर श्रावक जन साधुओं के लिए 'माता-पिता के समान' हैं । इस पारस्परिक अंकुश के कारण जैन श्रमण संस्था अत्यन्त पवित्र रही है। बौद्ध संघ में इस प्रकार की व्यवस्था न होने से कालान्तर में । बौद्धभिक्षुओं में गहरी शिथिलता प्रविष्ट होगई जिसका परिणाम अन्ततोगत्वा . यह आयो कि भारत की भूमि से उसे विदा लेनी पड़ी। भगवान महावीर ने । अपनी सुदूरदर्शिता के कारण संघ की सुंदृढ व्यवस्था की। इस व्यवस्था के फल स्वरूप जैनधर्म हजारों संकटों से पार होकर भी सुरक्षित रह सका है। . इस चतुर्विध संघ व्यवस्था का तथा जैनसाधु-साध्वियों के आचार-विचार . का आध्यात्मिक महत्व तो है ही परन्तु उनका सामाजिक महत्व और भी विशेष है।
. जैनसंघ में श्रमणवर्ग का प्रभुत्व है। जैनसंघ की उन्नति का सारा श्रेय प्रायः श्रमणवर्ग को ही है। इनके तप और त्याग के बल पर, इनकी
. अप्रतिम प्रतिभा के आधार पर और इनके पुरुषार्थमय . संघ का सामाजिक प्रचार के कारण जैन शासन की चतुर्मुखी उन्नति हुई है। महत्त्व एक तरह से यह कहा जा सकता है कि सकल संघ का दार
मदार श्रमण वर्ग पर ही है। जैन श्रमण वर्ग ने भारतवर्ष, के विभिन्न प्रान्तों में पाद-विहार करके त्याग, तप, अहिंसा और नैतिकता के प्रसार में असाधारण योग दिया है। यह एक ऐसा निस्वार्थ और निःशुल्क प्रचारक वर्ग है जो समाज के नैतिक धरातल. को सदा से ही ऊँचा उठाने के लिये प्रयत्नशील रहा है । कोई व्यक्ति यह मानने से इन्कार नहीं कर सकता कि जैन साधु-संस्था ने भारत के एक कोने से लेकर दूसरे कोने के ग्रामों में घूम घूम कर आध्यात्मिक जागृति का पवन फूंकने के साथ ही साथ जनता में नवीन सामाजिक चेतना का संचार किया। मद्य-मांस से निवृत्ति, सप्त कुव्यसनों का त्याग, व्यभिचार की अप्रतिष्ठा, ब्रह्मचार्य का बहुमान, नैतिक सदाचार आदि २ वातावरण तैयार करने में और समाज के लिये हितकर तत्वों को लोक-मानस. में उतारने में इस श्रमण संस्था का मुख्य हाथ रहा है । . . .
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