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जैन-गौरव-स्मृतियां
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है। जैनों ने अहिंसा के विषय में इतना अधिक बारीक काला है कि वह .... व्यवहार की चीज ही नहीं रह गई है" यह भी जैन-अहिंसा अहिंसा की अव्या- पर आक्षेप किया जाता है । निस्संदेह जैनधर्म ने अहिंसा के. • वहारिकता पर विचार सम्बन्ध में खूब तलस्पर्शी विवेचन किया है परन्तु यह
उसकी त्रुटि नहीं किन्तु गौरव की निशानी है । जैनधर्म : को इस बात पर गौरव है कि उसने विश्व को शान्ति देनेवाली अहिंसासंजीवनी पर सबसे अधिक भार दिया है । जैनधर्म ने अहिंसा को व्यापक : रूप दिया है। तदपि वह केवल आदर्श. की वस्तु ही नहीं रह गई है अपितु वह व्यवहार साध्य भी है। जो लोग केवल ऊपर-ऊपर से ज्ञान प्राप्त करते हैं वे ही इस प्रकार का आक्षेप करते हैं। जिन्होंने थोड़ी भी गहराई से जैनधर्म सम्मत अहिंसा का स्वरूप समझा है वे कह सकते है कि उक्त आक्षेप का कोई ठोस आधार नहीं है। जैनधर्म को अहिंसा की परिभापा, उसका क्रमिक आराधन, आराधन करने वाले पात्रों की विविध श्रेणियाँ आदि २ वातों का जिन्होंने अध्ययन किया है उनके सामने यह अव्याव-:. हारिकता का प्रश्न ही नहीं खड़ा होता है। ... . . . . . . . . . .
प्रमत्तयोगात् प्राण व्यपरोपणं हिंसा' यह हिंसा की परिभाषा की गई है. । प्रमाद के ( अशुभविचार और आचार के ) वशीभूत होकर किसी प्राणी को प्राणों से रहित करना हिंसा है यह उक्त सूत्र का भावार्थ है। इसमें वही हिंसा, परिगृहीत है, जो राग-द्वप के वशीभूत होकर की जाती है ।. हलन-चलन, श्वासोच्छ वास आदि के द्वारा होने वाली अनिवार्य हिंसा के कारण कर्म-बन्ध नहीं होता, बशर्ते कि उसमें राग-द्वेष की भावना न हो । जैन तत्वविचारकों ने जिस अहिंसा का प्रतिपादेन किया है उसका. उन्होंने स्वयं अपने जीवन में आचरण किया है। अपने आचरण के द्वारा उन्होंने इसकी व्यवहारिकता सिद्ध करदी है। . . . .
अहिंसा के आराधनः : की विभिन्न श्रेणियाँ जैनसिद्धान्तों में प्रतिपादित हैं । प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता के अनुसार क्रमशः उन्हें अपनाता हुआ पराकाष्ठा तक पहुँच सकता है। इस सुविधा के कारण प्रत्येक परिस्थिति का व्यक्ति अपनी शक्ति के अनुसार इसे अपना सकता