________________
जैन-ग-स्मृोवरतियाँ ★
प्र
★
। जो रागद्वेष से सर्वथा अतीत हो चुका हो वह वीतराग आत्मा शुद्ध-बुद्ध निर्विकार परमात्मा है, यह जैनधर्म मानता है । वह ईश्वर के विशुद्ध स्वरूप को स्वीकार करता है । वह यह भी मानता है कि प्रत्येक आत्मा राग-द्वेष से मुक्त होकर परमात्मा वन सकता है । इस अवस्था में यह कहना कि जैनधर्म, परमात्मा की सत्ता को नहीं मानता सर्वथा मिथ्या है।
कई यह कहते हैं कि जैनधर्म ईश्वर को जगत् का सृष्टा और नियन्ता नहीं मानता है अतः वह नास्तिक है । यह कथन भी युक्तिशून्य है । वस्तुतः ईखर में जगत्कर्तृ त्व घटता ही नहीं है जगत् का कर्त्ता मानने पर ईश्वर में ईश्वरता ही नहीं रह पाती है । अतः जैनधर्म ईश्वर में जगत्कर्तृत्व का मिथ्या उपचार नहीं करता है, इस विषय में "जैनदृष्टि से ईश्वर" प्रकरण में विस्तार से प्रकाश डाला गया है अतः यहाँ पुनः पिष्टपेषण नहीं करना है । युक्ति के द्वारा जब ईश्वर में जगत्कर्तृत्व सिद्ध नहीं होता है तो उसे न मानने से कोई नास्तिक कैसे कहा जा सकता है ? कई वेदानुयायी सांख्य, मीमांसक आदि सम्प्रदाय भी जगत् को ईश्वरकर्तृक नहीं मानते वे तो नास्तिक नहीं और जैनधर्म इसी कारण नास्तिक है, यह कैसे कहा जा सकता है ?
वस्तुतः नास्तिक और आस्तिक की परिभाषा जो भट्टोजी दीक्षित ने लिखी है वह प्रामाणिक और संगत हैं । इसके अतिरिक्त जो 'नास्तिक' की परिभाषाएँ बताई जाती है वे सब मताग्रह को सूचित करती है । जैनधर्म जैसा धर्म जो आत्मा को परमात्मा की ओर प्रगति करने की प्रेरणा देता है, जो सदाचार और नीति का प्रबल पोषक है, जो त्याग - संयम और तपश्चर्या को महत्व देता है और जो परलोक की व्यवस्था में पूरी २ श्रद्धा रखता है वह नास्तिक कैसे कहा जा सकता है। अतः जैनधर्म को निरीश्वरवादी और नास्तिक कहना भयंकर भूल करना है ।
'जैनधर्म का प्राण हिंसा है । संसार में अहिंसाधर्म का प्रचार करने का सबसे अधिक श्रेय जैनधर्म को ही है । अहिंसा का जितना सूक्ष्मनिरूपण जैनधर्म ने किया है उतना और किसी ने नहीं । जैन- हिंसा पर जैन तत्वचिन्तकों ने ही आध्यात्मिक और सांसारिक शान्ति के लिए हिंसा की आवश्यकता का सर्वप्रथम अनुभव किया । दूरदर्शी जैन तत्वचिन्तकों ने
प्रक्षेप
हजारों वर्ष पहले यह
(२८१))
५८