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जैन-गौरव स्मृतियाँ *
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न समानताओं के कारण कतिपय पाश्चात्य विद्वानों को यह भ्रम पैदा . हुआ । परन्तु इस विषय में जर्मनी के सुप्रसिद्ध प्रो. हर्मन जेकोबी ने पर्याप्त
अन्वंपण किया और फलस्वरूप उन्होंने अपना स्पष्ट अभिप्राय डंके की चोट घोषित किया कि "जैनधर्म सर्वथा स्वतंत्र धर्म है वह किसी की शाखा या अनुकरण नहीं है" । हर्ष का विषय है कि जेकोबी महोदय के इस मन्तव्य से कई पाश्चात्य विद्वानों ने अपनी धारणाएँ संशोधित करली हैं । अब प्रायः सब यह स्वीकार कर लेते हैं कि जैनधर्म, बौद्धधर्म से प्राचीन है। . .
जेकोबी महोदय ने जैनधर्म को सर्वथा मौलिक और स्वतंत्रधर्म सिद्ध किया है उससे यह भी धारणा खण्डित हो जाती है कि जैनधर्म हिन्दुधर्मः की एक शाखा है। जैनधर्म के इस काल के आदि तीर्थङ्कर श्री ऋषभदेव हैं जो संख्यातीत वर्ष पहले हो गये हैं। इन ऋषभदेव का नामोल्लेख और चरित्र-वर्णन वेदों में भी किया गया है । ऋग्वेद में भगवान ऋषभदेव की "तू अखण्ड पृथ्वीमण्डल का सार त्वचा रूप हैं, पृथ्वीतल का भूषण है। दिव्यज्ञान द्वारा आकाश को नापता है, हे ऋषभनाथ सम्राट् ! इस संसार में जगरक्षक व्रतों का प्रचार करो" इन शब्दों में स्तुति की गई है। वेद, पुराण, योगवाशिष्ट, आदि २ प्राचीनतम ग्रन्थों में जैनतीर्थङ्कर श्री ऋभषदेव अरिष्टनेमिः (नेमिनाथ ) आदि का उल्लेख मिलता है। इससे यह सिद्ध होता है कि जैनधर्म कम से कम वेदधर्म जितना प्राचीन तो है ही। आजकल ऐसी भी सामग्रियाँ पुरातत्वज्ञों को प्राप्त हुई हैं जो श्रमसंस्कृति-जैनसंस्कृतिको ब्राह्मणसंस्कृति से भी अधिक प्राचीनता को प्रकट करती हैं।
‘बड़े २ इतिहासज्ञों और पुरातत्ववेत्ताओं ने अब यह मान लिया है। है कि जैनधर्म एक प्राचीन और मौलिक धर्म है । इस सम्बन्ध में अजैन विद्वानों ने जो अभिप्राय व्यक्त किये हैं वे 'जैनधर्म की प्राचीनता' शीर्षक प्रकरण में देखने चाहिए। वहाँ इस सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक लिखा गया है। यहाँ तो केवल दिक्-सूचन मात्र करना अभीष्ट है। उस प्रकरण को पद लेने से उक्त सभी भ्रान्तियों का निराकरण हो जाता है । अतः उस ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया जाता है। .