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जन-गौरव-स्मृतियां *
है। आकाश-नित्य, व्यापक और अनन्त है। यह दो प्रकार का है लोक और अलोक । लोकाकाश में ही शेष पाँच द्रव्य रहते हैं, अलोकाकाश में नहीं। इसलिए जगत् की सीमा है लोकाकाश पर्यन्त । इसके बाद आकाशं तो है पर वहाँ लोक नहीं है । लोकाकाश के बाहर जीव जा भी नहीं सकते क्योंकि वहाँ धर्म और अधर्म द्रव्य नहीं हैं जो कि गति-स्थिति में सहायक हैं। आकाश स्वयं गति-स्थिति माध्यम नहीं हो सकता क्योंकि फिर (१) सिद्धों की मुक्ति स्थिति नहीं बनेगी (२) अलोकाकाश नहीं बनेगा (३) जगत् असीम हो जाएगा (४) उसकी स्थिरता एवं अनन्तता भी नहीं बनेगी । जगत् ससीम है । जगत् की स्थिति कालके कारण है धर्म अधर्म के कारण । आकाश के प्रदेश हैं।
यह सत्य है कि विज्ञान आकाश को एक स्वतंत्र द्रव्य नहीं मानता। . फिर भी आकाश में विद्यमान समस्त गुणों को स्वीकार करता है। लोकाकांश के विषय में H. Ward का यह अभिमत उल्लेख योग्य है।
"........the total a ount of matter which exists is limited and that the total extent of the universe is finile. 'They do not couceive that there is limit beyond which no space exists"
____ लोकाकाश सीमित है। यदि आकाश में वस्तु हो तो गोलाकार रूप में उसका भुकाव होता है । वार्ड का कहना है कि लोकाकाश का घुमाव इस प्रकार है कि यदि एक प्रकाश किरण सीधी रेखा में चले तो वह अपने मूल बिन्दु पर पहुँचेगी जहाँ से वह शुरु हुई थी। शक्ति स्थिति भी असीम होने की. स्थिति में नहीं बनेगा क्योंकि फ़िर एक बार की शक्ति अनन्त में विलीन हो जाएगी।
यह वास्तव में एक समस्या है कि लोकाकाश सीमित हैं और आकाश अनन्त है। परन्तु आइन्स्टीइन के सापेक्षतावाद के सिद्धान्त ( Theory of Felativity ) से. यह बात स्पष्ट हो जाती है । एडिंग्टन इसी बात को इन शन्दों में व्यक्त करता है :