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*जैन-गौरव-स्मृतियां
काल लोकव्यापी होकर भी धर्मास्तिकाय की तरह स्कन्ध नहीं है किन्तु अणुरूप है। इसके अणुओं की संख्या लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर है । वे अणु, गतिहीन होने से जहाँ के तहाँ अर्थात् लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर स्थित रहते हैं । इनका कोई स्कन्ध नहीं बनता है इससे इनमें तिर्यक् प्रचय होने की शक्ति नहीं है। इस कारण कालद्रव्य को 'अस्तिकाय' नहीं गिना है । तिर्यक् प्रचय न होने पर भी उर्ध्व प्रचय होता है इससे प्रत्येक कालाणु में लगातार पर्याय हुआ करते हैं। ये ही पर्याय 'समय' कहलाते हैं। एक एक कालाणु के अनन्त समय-पर्याय हुआ करते हैं। समय-पर्याय ही अन्य द्रव्यों के पर्याय का निमित्त कारण है। नवीनता-पुराणता, ज्येष्ठता-कनिष्ठता आदि सब अवस्थाएं काल-अणु के समयप्रवाह की बदौलत ही ससझनी चाहिए। पुद्गल परमाणु को लोकाकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश तक मन्दगति से जाने में जितनी देर होती है, उतनी देर में कालाणु का एक समयपर्याय व्यक्त होता है। . 'काल' के सम्बन्ध में वैज्ञानिकों का ठीक ठीक निर्णय अभी तक नहीं हो पाया है। अभी तक वे काल को स्वतंत्र द्रव्य नहीं मानते हैं । जैनधर्म जिन कारणों से काल की सत्ता मानता है, वे ही कारण, और वे ही कार्य जो जैनाचार्यों ने काल के बताये हैं, आज का विज्ञान भी स्वीकार करता है।
सुप्रसिद्ध फ्रेन्च दार्शनिक वर्गसन ने तो काल को Dynamic realify : कहा है उसके मत के अनुसार काल का प्रबल अस्तित्व स्वीकार कियेविना नहीं चल सकता। इस प्रकार जैनदर्शन सम्मत द्रव्यनिरूपण वैज्ञानिक सत्यसिद्ध होता है।
जैनधर्मः भौतिक जगत् और विज्ञान .... ___ "आज के भौतिक जगत् में वैज्ञानिक उन्नति के कारण प्राप्त होने वाले ऐश्वर्य तथा सुखों की प्राप्ति और उसकी कामना ने प्रत्येक मानव-मस्तिष्क
को मोह लिया है। फलस्वरूप मानव ने अपनी प्राचीनता को-स्वभाव.. __ को छोड़कर नवीनता का पल्ला पकड़ना शुरु किया है। वह इसके पीछे पड़
कर धर्म-कर्त्तव्य-तक को भूल गया है । यह वास्तव में दुःसह परिस्थिति है। वेचारा साधारण मानव क्या जाने कि आन की उन्नति हमारे पूर्वजों के