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★ जैन - गौरव स्मृतियां
मिथ्यात्व के दूर होते ही आत्मा को सत्यस्वरूप की प्रतीति हो जाती है, उसकी अब तक पर-रूप में स्वरूप की जो भ्रान्ति थी वह दूर हो जाती है, उसे लक्ष्य का ज्ञान हो जाता है और उसकी प्रवृत्ति सत्यमार्ग की ओर हो जाती है। उसकी अब तक की परपदार्थाभिमुखी बुद्धि आत्माभिमुखी हो जाती है । उसका बहिरात्मभाव छूट जाता है और अन्तरात्मभाव प्रकट हो जाता है । यह सत्य प्रतीति, यह विवेक ज्ञान और यह आत्माभिमुखता ही मोक्ष का मूल द्वार I प्राप्त करते ही आत्मा को आध्यात्मिक शान्ति का सर्वप्रथम अनुभव होता है । यह विकासक्रम की चतुर्थ भूमिका है। बीच में रही हुई दूसरी भूमिका विकास की, उत्क्रान्ति की भूमिका नहीं हैं। इस भूमिका में वे ही आत्माएँ आती हैं जो चतुर्थ था आगे की भूमिकाओं से गिरती हैं । सम्यक्त्व प्राप्त कर लेने के पश्चात भी मोहोद्रेक से आत्मा का पतन होता है । सम्यक्त्व के राजमार्ग से पतित होता हुआ जब तक मिथ्यात्व को नहीं प्राप्त कर लेता है तब तक की बीच की अवस्था में जो आत्मशुद्धि रहती है वह दूसरी भूमिका है । प्रथम गुणस्थान की अपेक्षा इसमें आत्मशुद्धि अवश्य कुछ अधिक होती है इसलिए इसे दूसरा स्थान दिया गया है। प्रथम गुणस्थान ) से निकलकर सीधा ही दूसरे गुणस्थान में आया नहीं जाता किन्तु ऊपर से, गिरने वाला आत्मा ही इस भूमिका में आता है।
तीसरी भूमिका में आत्मा की वह दोलायमान अवस्था होती है जिसमें वह न तो तवज्ञान की निश्चित भूमिका पर होता है और न तत्त्व ज्ञान-शून्य निश्चित भूमिका पर न तो वह तत्त्वतत्त्व का विवेकही कर सकता है और न एकान्ततत्व को अतत्त्व रूप ही मानता है । जिस प्रकार शक्कर मिला हुआ दही न तो पूर्ण मीठा ही होता है और न खट्टा ही होता है किन्तु खट-मीठा होता है इसी तरह इस भूमिका में न तो तत्त्व का विनिश्चय ही होता है और न पूर्ण रूप से मिथ्या श्रद्धा ही । यह मिश्र : गुणस्थान है। कोई विकासोन्मुख आत्मा प्रथम गुणस्थान से निकलकर सीधा तीसरे गुणस्थान से गिरकर इस गुणस्थान को प्राप्त कर सकता है । इस प्रकार यह गुणस्थान उत्क्रान्ति और अपक्रान्ति करने वाले- दोनों प्रकार के आत्माओं का आश्रय होता है । इस भूमिका में स्थित चात्माओं की विशद्धि में भी तरतमता होती है । सब की आत्म-विशद्धि एक-सी नहीं होती । चतुर्थ भूमिका सम्यग्दृष्टि आत्मा की है जिसका वर्णन इन दो
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