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Neeजैन-गौरव-स्मृतियांमार
कभी पापात्मा सुखी देखे जाते हैं और धर्मात्मा प्राणि कष्ट का ... अनुभव करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं इसका कारण 'कर्म का फल नहीं मिलना' नहीं है परन्तु यह उनके पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मों का फल समझना चाहिए । पापात्मा का सुखी देखा जाना उसके पूर्वकृत शुभकर्म का उदय है । वह अभी जो पाप कर रहा है उसका दुष्परिणाम उसे आगे भोगना पड़ेगा ही। इसी तरह जो धर्मात्मा अभी दुःखी देखा जाता है यह उसके पूर्वकृत अशुभ कर्म का परिणाम समझना चाहिए । अभी के किये हुए धर्मानुष्ठान का फल उसे भविष्य में अवश्य प्राप्त होगा। इस प्रकार कर्म
और कर्मफल के कार्यकारण भाव में कोई दोष नहीं आता है । इस व्यवस्था के लिए कर्म और कर्मफल के बीच में ईश्वर को डालने की कोई आवश्यकता नहीं है।
"कर्म में स्वयं फल देने की शक्ति है" इस विषय में जैनदर्शन और बौद्धदर्शन एकमत हैं तदपि कर्म के स्वरूप के विषय में इनमें महत्वपूर्ण भेद हैं । बौद्धदर्शन के अनुसार कर्म केवल पुरुषकृत-प्रयत्न ही नहीं है अपितु एक विश्व व्यापी नियम है । अर्थात् बौद्ध कर्म को कार्यकारण भाव के रुपः में मानते हैं । जबकि जैनदर्शन कर्म को स्वतंत्र पुद्गल द्रव्य मानता है।
जीव की तरह कर्म भी स्वतंत्र जड़ पदार्थ है। जैनदर्शन के अनुसार :: कर्म-वर्गणा के पुद्गल सारे लोक में ऊपर-नीचे, आस पास, इधर-उधर । सब जगह-भरे हुए हैं । जीव अपनी विभाव परिणति के द्वारा उन कर्म। पुद्गलों को अपने साथ सम्बन्धित कर लेता है जिनके कारण उसका. ३ मूल शुद्ध स्वरूप विकृत हो जाता है। इस प्रकार जैनदर्शन कर्म को जीव.
विरोधी गुण वाला जड़ द्रव्य मानता है। इस जीव सम्बद्ध कर्म शक्ति के
द्वारा सारा विश्व-प्रवाह प्रवाहित होता रहता है। यही संसार का मूल । स्रोत है। यही आत्मा और परमात्मा के भेद का कारण है। . ..
जैनदर्शन के अनुसार आत्मा का वास्तविक मौलिक स्वरूप अनन्त ज्ञानमय, अनन्तदर्शनमय, अनन्त सुखमय, अनन्त शक्तिमय और शुद्ध
. . . . . ज्योतिर्मय है। वह स्फटिक मणि की तरह निर्मल और जैनदर्शन और कर्म:- प्रकाशस्वभाव वाली है। परन्तु अनादि काल से वह
विभावदशा को प्राप्त हो रही है । दर्शन मोह-अज्ञान के
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