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जैन-गौरव-स्मृतियां
कारण है। कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धान्त का विचार स्वतंत्र प्रकरण में किया जाएगा । यहाँ तो इतना ही पर्याप्त है कि संसारी आत्मा कर्मों से संयुक्त है और वह जन्म-मरमा करता रहता है। कर्म के कारण ही संसार में यह वैषम्य पाया जाता है ऐसे भी दार्शनिक हैं जो यह मानते हैं कि जब तक शरीर है तब तक उसमें आत्मा रहती है और शरीर के नष्ट हो जाने से आत्मा. भी नष्ट हो जाती है । परलोक में गमनागमन करने वाली आत्मा को वे नहीं मानते । परन्तु यह मान्यता ठीक नहीं है । संसार का वैपन्य ही पुनर्जन्म और परलोक को सिद्ध कराता है।
___ तात्पर्य यह है कि जैनदर्शन के अनुसार आत्मा चैतन्यस्वभावी, अमूर्त, परिणामी, स्वदेहपरिमाण, कर्ता, साक्षाद् भोक्ता, संख्या से अनन्त और परलोक में गमनागमन करने वाला है। यह संसारी आत्मा का स्वरुप है । शुद्ध आत्मा तो सच्चिदानन्दमय है । वस्तुतः जैन आत्मविज्ञान अनुपम और वैज्ञानिक है।
कर्म का अविचल सिद्धान्त कर्म और दार्शनिकसंसार:
दार्शनिक संसार में कम का अखण्ड साम्राज्य है। विश्व के समस्त दार्शनिकों और विचारकों ने कर्म की प्रबल सत्ता को किसी न किसी रूप में श्रवश्यक स्वीकार किया है। कोई भी विचारक कर्म की सत्ता का अपलाप नहीं करता है । विविध बातों के सम्बन्ध में मतभेद होने पर भी कर्म की सत्ता के सम्बन्ध में सब दार्शनिक और तत्वचिन्तक एकमत हैं। इससे कर्म की निराबाध सत्ता प्रमाणित होती है। भारतीय तत्व-विचारकों ने कर्म के सम्बन्ध में पर्याप्त उहापोह किया है और उसकी विपुल शक्ति का अनुभव पूर्ण प्रतिपादन भी किया है । "कर्मणां गहना गतिः" कह कर उन्होंने फर्म की दुलंग शक्ति का आभास करा दिया है।
__ सारे विश्वतंत्र के संचालन में कर्म की अगम्य शक्ति ही कार्य कर रही है। कर्म के कारण ही सूर्य प्रकाशित है, चन्द्रमा ज्योत करता है. हवा प्रवाहित होती है, वर्षा बरसती है, धान्य उत्पन्न होता है, वृनलता आदि फलते
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