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+ जैनगौरव-स्मृतियां ★
होने पर सब को सुख का अनुभव होना चाहिए और एक के दुःख से सब को दुःख होना चाहिये । ऐसा होने पर धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप, स्वर्ग-नरक बन्ध-मोक्ष आदि की संगति नहीं बन सकती है। अतः आत्मा को स्वदेह परिमाण ही मानना चाहिये सर्वव्यापक नहीं।
. आत्मा स्वयं अपने कर्मों का भोक्ता है । जो कर्म करता है वही उसका साक्षात् भोक्ता है । जैन दर्शन की यह मान्यता है कि आत्मा अपने किये हुए
कर्मों के अनुसार स्वयमेव सुख या दुःख का अनुभव करता भोक्ता है। कोई दूसरी ईश्वर जैसे शक्ति उसे कर्म का फल देती
है, यह जैन दर्शन नहीं मानता है। इस विषय में 'ईश्वर' प्रकरण में विस्तार से कहा जा चुका है
जैनदर्शन के अनुसार आत्मा न तो एकान्त नित्य है और न एकान्त अनित्य । वह द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य
है। पर्यायों का परिणमन होते रहने से आत्मा को परिअात्मा का परिणामित्व रणामी माना गया है। सांख्यदर्शन, और न्याय-वैशेपिक
दर्शन आत्मा को कूटस्थ नित्य मानते हैं। जो कभी उत्पन्न न हो, कभी नष्ट न हो और स्थिर रहे अर्थात् जिसमें किसी प्रकार का परिवर्तन न हो वह नित्य है। इस व्याख्या के अनुसार यदि वात्मा को नित्य मान ली जाय तो उसका नवीन शरीर धारण करना और पूर्व शरीर का त्याग करना नहीं बन सकता। इसके बिना जन्म-मरण नहीं घटित होता । जन्ममरण के विना इहलोक परलोक की व्यवस्था नहीं बनती। यदि श्रात्मा कूटस्थ नित्य है कोई परिवर्तन नहीं हो सकता है तो ज्ञान-तप, धर्म आदि की
क्या उपयोगिता रह जाती है ? ये सब धर्म-कर्म व्यर्थ हो जाते हैं । अतः आत्मा - का कूटस्थ नित्यत्व युक्तिसंगत नहीं प्रतीत होता । इसी तरह आत्मा को यदि
सर्वथा अनित्य मान लिया जाय तो भी उक्त व्यवस्थाएं घटित नहीं हो सकती हैं। यह बात बौद्ध विज्ञान-प्रवाह की चर्चा करते हुए पहले स्पष्ट की जा चुकी है। अतः आत्मा न तो सर्वथा नित्य है और न सर्वथा अनित्य ही है वह परिणमन शील है। परिवर्तनों के होते हुए भी वह द्रव्य रूप से नित्य है यही आत्मा का परिणामित्व है।